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अष्टसहस्री
वचनात् । तच्चार्थप्राकटयमर्थधर्मो' ज्ञानधर्मो वा ? 2 प्रथमपक्षेऽर्थपरिच्छेदकज्ञानादविशेषेणेतरस्यासिद्धेर्नतल्लिङ्गम् । तदविशेषस्तु तस्यास्वसंविदितत्वादनुमानापेक्षत्वप्रसङ्गात् । न हि ज्ञाने' 'परिच्छेदकेऽप्रत्यक्षे ' तत्कृतोर्थपरिच्छेद:' प्रत्यक्षः स्यात्, संतानान्तरज्ञानकृतार्थपरिच्छेदवत् । बहिरर्थस्थ प्रत्यक्षत्वात्तद्धर्मस्य प्रत्यक्षत्वमिति चेन्न, अर्थस्यापि .10 स्वतः प्रत्यक्षत्वासिद्धेः । स्वज्ञाने प्रतिभासमानस्य" प्रत्यक्षत्वे संतानान्तरज्ञानेपि साक्षात्प्रतिभासमाने प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः12, तस्यानुमेयत्वाविशेषात् । बहिरर्थप्राकट्यस्य प्रमातुः स्वसंविदितत्वात्तलिङ्गमेव ज्ञाने प्रसिद्धमिति चेत्कथमर्थधर्म : 13 स्वसंविदितो नाम ? अर्थवत् 14 | सोयं ज्ञानम
"ज्ञानेत्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम् ” अर्थात् अनुमान से पदार्थ के जान लेने पर प्रमाता ज्ञान को जानता है । ऐसा हमारे यहां वचन है ।
स० प० कारिका ८३
जैन - अच्छा ! तो आप यह बतलाइये कि वह अर्थ की प्रकटता पदार्थ का धर्म है या ज्ञान धर्म है ? यदि पहला पक्ष लेवें तब तो अर्थ परिच्छेद ज्ञान से भिन्न सामान्यतया अर्थ की प्रकटता असद्धि ही है । अतएव वह हेतु नहीं हो सकती है किन्तु वह अविशेष ही है । क्योंकि वह ज्ञान अस्वसंविदित है अतएव उसमें अनुमान की अपेक्षा का प्रसंग आ जावेगा । अर्थात् मीमांसक के मत में ज्ञान भी अव्यवसायात्मक है तथा पदार्थ भी अव्यवसायात्मक है। दोनों ही समान हैं । अतः अस्वसंविदित ज्ञान को अनुमान के द्वारा ही जाना जावेगा न कि उसी ज्ञान से, क्योंकि ज्ञान स्वयं को जानता ही नहीं है ।
इस प्रकार से परिच्छेदक- जानने वाला ज्ञान तो अप्रत्यक्ष है तथा उसके द्वारा किया गया अर्थ का जानना प्रत्यक्ष है ऐसा कहना शक्य नहीं है । जैसे कि भिन्न संतान के ज्ञान से किया गया अर्थ का ज्ञान । अर्थात् जैसे देवदत्त ने अपने ज्ञान से जिस पदार्थ को जाना है जिनदत्त को उस पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है वैसे ही जानने वाला ज्ञान अप्रत्यक्ष है तब तो उस अप्रत्यक्ष ज्ञान से जाना गया पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं होगा ।
1 कारणरूपात् । ब्या० प्र० । 2 अर्थप्राकट्यस्य । व्या० प्र० । 3 निश्चायके ज्ञाने परोक्षे सति तज्जनितमर्थज्ञानं प्रत्यक्षं नहि स्यात् यथा सन्तानान्तरज्ञानं तव परोक्षं तत्कृतार्थज्ञानञ्च परोक्षम् । दि० प्र० । 4 कारणरूपे । ब्या० प्र० । 5 परोक्षज्ञानकृत् । व्या० प्र० । 6 प्राकट्यम् । ब्या० प्र० । 7 इन्द्रियस्याप्रत्यक्षत्वेपि तत्कृतस्यार्थप्राकट्यस्य प्रत्यक्षत्वाददर्शनाददोष इति न शङ्कनीयमर्थ परिच्छेदकस्य भावेन्द्रियस्य स्वसंविदितत्त्वाभ्युपगमाद्द्द्रव्येन्द्रियस्य तु साक्षादर्थं परिच्छेदकत्वायोगात् । दि० प्र० । 8 आह परः बहिरर्थः प्रत्यक्षं तद्धर्मार्थ प्राकट्यञ्च प्रत्यक्षमिति चेत् = स्था० व० एनं न भवति । दि० प्र० । 9 स्वस्मात् । दि० प्र० । 10 अर्थस्य । ब्या० प्र० । 11 बहिरर्थस्य सति । दि० प्र० । 12 आक्षेपे = तावत्प्राकट्यस्य स्वसंविदितत्वे दोषमाहुः कथमर्थेति । दि० प्र० | 13 एतदेव भावयति । = स्याद्वाद्याह नाम अहो परोक्षज्ञानवादिनर्थ धर्मः स्वसंविदितः कथं भवेत् । न कथमपि यथा बहिरर्थः स्वसंविदितो न तथा तद्धर्मोपि == आत्मज्ञानं किल स्वं न जानाति अर्थज्ञानं स्वरूपं जानातीति ब्रुवाणः सोयं परोक्षज्ञानवादी विरुद्धमतो भवेत् । दि० प्र० ।
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