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________________ ४०४ ] अष्टसहस्री [ स०प० कारिका ८३ विशेषादभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति वचनात्, कथंचिद्भ्रान्तत्वेनेकान्तसिद्धरनिवारणात् । तस्मात्स्वसंवेदनापेक्षया न किंचिज्ज्ञानं सर्वथा प्रमाणम् । बहिरर्थापेक्षया तु प्रमाणतदाभासव्यवस्था, तत्संवादकविसंवादकत्वात् क्वचित्स्वरूपे केशमशकादिज्ञानवत् । नभसि केशादिज्ञानं हि बहिविसंवादकत्वात्प्रमाणाभासं स्वरूपे' संवादकत्वात्प्रमाणम् । न चैवं विरोधः प्रसज्यते, जीवस्यैकस्यावरणविगमविशेषात् सत्येतराभाससंवेदनपरिणामसिद्धे: कालिकादिविगमविशेषाकनकादिजात्येतरपरिणामवत् । प्रश्न करते हैं कि यह अनुभव सर्वथा भ्रांत हैं या कथंचित् ? यदि सर्वथा भ्रांत पक्ष मानोगे तब तो सर्वत्र बाह्य पदार्थ में एवं स्वस्वरूप में सभी जगह सर्वदा-स्वप्न अवस्था के समान जागृत अवस्था में भी भ्रांति ही हो जावेगी क्योंकि अप्रत्यक्षपना दोनों जगह समान है। पुनः आप सौगत भी परोक्षज्ञानवादी हो जावेंगे। यदि आप कहें कि कथंचित्-अर्थ में ही यह अनुभव भ्रांत है किन्तु स्वरूप में भ्रांत नहीं है तब तो एकांत मान्यता की हानि होने से आपका स्याद्वाद में अनुप्रवेश हो जावेगा। क्योंकि केवल निर्विकल्प अर्थ दर्शन में परोक्षज्ञान से समानता नहीं है। शंका-तो और कहां है ? समाधान-उसकी व्यवस्था में हेतु भूत उस विकल्प-स्वसंवेदन में भी परोक्षज्ञान से समानता है। क्योंकि वह भी विकल्पों का उल्लंघन नहीं कर सकता है। अर्थात् यह विकल्प सर्वथा भ्रांत है या कथंचित् इत्यादि प्रश्न किये जा सकते हैं। सर्वथा यदि विकल्प को भ्रांतरूप मान लोगे तब तो बाह्य पदार्थ के समान स्वरूप में भी भ्रांत हो जाने से परोक्षत्व समान रूप से ही हो जाता है 'पुनः प्रत्यक्ष अभ्रांत है' ऐसा वचन सिद्ध हो माता है। यदि कथंचित् उस विकल्प को भ्रांत मानते हो तब तो आप अनेकांत की सिद्धि का निवारण नहीं कर सकेंगे। इसलिये स्वसंवेदन रूप अंतःप्रमेय की अपेक्षा से कोई भी ज्ञान सर्वथा अप्रमाण नहीं है किन्तु बाह्यार्थ की अपेक्षा से प्रमाण एवं प्रमाणाभास की व्यवस्था है क्योंकि वह प्रमाण तो संवादक है, एवं प्रमाणाभास विसंवादक है । कहीं-स्वरूप में केशमशकादि ज्ञान के समान । आकाश में केशादि का ज्ञान है वह बाहर में विसंवादक होने से प्रमाणाभास है एवं स्वरूप में संवादक होने से प्रमाण है । इस प्रकार से एक में ही प्रमाण एवं प्रमाणाभास की व्यवस्था करने से हमारे यहाँ विरोध का भी प्रसंग नहीं आता है क्योंकि एक ही जीव के आवरण का विगम-क्षयोपशमादि विशेष होने से सत्य एवं असत्य संवेदन परिणाम सिद्ध हैं । जैसे-किट्ट कालमा आदि के अभाव विशेष से सुवर्णादि में उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट परिणाम विशेष देखे जाते हैं। 1 विकल्पस्य भ्रान्तत्वेपि प्रत्यक्षत्वं भविष्यतीत्याशंकायामाह । ब्या. प्र.। 2 अर्थ एव न स्वरूपे । ब्या० प्र०। 3 अर्थ । दि० प्र०। 4 केशादी। दि०प्र०। 5 विगमेतरविशेषात् । इति पा० । दि० प्र०। 6 अवभासवसः। दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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