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________________ बहिरंगार्थवाद का खण्डन } [ ३६३ प्रत्यक्षेतरवेदनम् । तथा स्वप्नदर्शनमपि विषयाकारनिर्भासम् । तत्तथा 2 इति बहिरङ्गार्थतं - कान्तः, सर्ववेदनानां बहिर्विषयत्वाभिनिवेशात् । अत्रापि लोकसमयप्रतिबद्धानां परस्परविरुद्धशब्दबुद्धीनां स्वार्थ संबन्धः परमार्थतः प्रसज्येत । न चैवं तृणाग्रे करिणां शतमित्यादिवचनानां स्वप्नादिबुद्धीनां च स्वार्थे संबन्धाभावात् तथा' संवादासिद्धेः । स्यान्मतं 'द्विविधोर्थो, लौकिकोऽलौकिकश्च । यत्र लोकस्य परितोषः स लौकिकः सत्यत्वाभिमतज्ञानविषयः । यत्र न लोकस्य परितोषः शास्त्रविदां तु संतोष: सोलौकिकोर्थः स्वप्नादिबुद्धिविषयः, सर्वथाप्यविद्यमानस्य प्रतिभासवचनासंभवात् ' ' खरविषाणानुत्पन्नप्रध्वस्त' विषय शब्द ' ज्ञानाना"मपि" लोकागोचरालौकिकार्थविषयत्वात्' इति तदेतदलौकिकमेव, जाग्रत्प्रत्यया " निरालम्बना तृतीय भाग आकार का निर्भास देखा जाता है । जैसे अग्नि का प्रत्यक्ष एवं अनुमान ज्ञान । उसी प्रकार से स्वप्न दर्शन भी विषयाकार निर्भास रूप है क्योंकि वह उसी प्रकार से बाह्य पदार्थ से प्रतिबद्ध रूप है । इस प्रकार से बहिरंगार्थतैकांत माना गया है क्योंकि सभी ज्ञान बाह्य पदार्थ ( विषयरूप ) अर्थात् "यह अग्नि है" इस प्रकार से अग्नि का ज्ञान साक्षात् रूप प्रत्यक्ष अग्नि का ज्ञान है एवं 'यह पर्वत अग्नि वाला है क्योंकि धूम वाला है' इस प्रकार का अनुमान ज्ञान परम्परा से अग्नि से सम्बन्धित है । इस विषय में हम जैनों का यह कहना है कि -लोक एवं समय-संकेत से प्रतिबद्ध ऐसे परस्पर विरुद्ध शब्द एवं ज्ञानों का भी अपने-अपने अर्थ के साथ पारमार्थिक सम्बन्ध हो जायेगा । अर्थात् पारमार्थिक संबंध मानने पर तो प्रमाण प्रमाणाभास की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी किन्तु ऐसा तो है नहीं, तृण के अग्र भाग पर सैकड़ों हाथियों का समूह बैठा है इत्यादि शब्दों का एवं स्वप्नादि ज्ञान का अपने-अपने अर्थ से सम्बन्ध नहीं है क्योंकि उस प्रकार का संवाद नहीं पाया जाता है । बहिरर्थवादी - अर्थ दो प्रकार का है लौकिक एव अलौकिक । जिस विषय में लोक को संतोष है वह सत्यरूप से अभिमत ज्ञान का विषय लौकिक अर्थ है । जहाँ लोक को संतोष नहीं है किन्तु शास्त्रवित् 1 ज्ञानम् । दि० प्र० । 2 तस्मात् । ब्या० प्र० । 3 सर्वथा बहिरर्थाङ्गीकारे । दि० प्र० । 4 स्याद्वादी । दि० प्र० । 5 तृणाग्रे करिणां शतमस्तीति वदतो ज्ञानस्य वचनस्य च तत्र तदभावग्राहक प्रत्यक्षादेश्च परस्परविरुद्धस्ययोभयस्य लोकप्रतिबद्धस्य स्वार्थ संबन्धः प्राप्नोतीत्यभिप्रायः । दि० प्र० । 6 ताद्धिः । व्या० प्र० । 7 अनागत । ब्या० प्र० । 8 अतीत । व्या० प्र० । 9 वसः । ब्या० प्र० । 10 मतम् । ब्या० प्र० । 11 वाचकग्राहकाणि शब्दाश्रवज्ञानानि च तेषाम् । दि० प्र० । 12 इदानीं समयप्रतिबद्धानामिति भाष्यपदं विवृण्वन्ति जाग्रत्प्रत्यया इति । स्याद्वाद्याह । जाग्रत्प्रत्ययाः पक्षः निरालम्बना निर्विषया भवन्तीति साध्यो धर्मः प्रत्ययत्वात् ज्ञानत्वात् । यथा स्वप्न प्रत्यय इत्यनुमानं रचयित्वा स्याद्वादी बहिरर्थवादिनमित्याह । अस्य परसंबोधनार्थं कृतानुमानस्यास्वार्थप्रतिबद्धत्वं स्वार्थप्रतिबद्धत्वं वेति प्रश्नः । स्वकीयग्राह्यबहिरर्था प्रतिबद्धत्वे सति तेनैवानुमानेन कृत्वा त्वया कृतस्य चेतस्त्वात् विषयाकारनिर्भासाच्चेति हेतुद्वयस्य व्यभिचारो गृह्यते बहिरथं प्रतिबद्धत्वे सति तदा सुप्तप्रमत्तमूच्छित बाल संसारियोयादीनां ज्ञानानि सालम्बनानि बहिरर्थप्रतिबद्धानि इति तवाभिप्रायो विरुद्धयते । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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