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________________ ३६४ ] अष्टसहस्री . [ स० प० कारिका ८१ एव प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवदिति परार्थानुमानप्रत्ययस्यास्वार्थप्रतिबद्धत्वे तेनैव चेतस्त्वस्य विषयाकारनिर्भासस्य च हेतोय॑भिचारात् स्वार्थप्रतिबद्धत्वे च सर्ववेदनानां सालम्बनत्वविरोधात् । अस्यालौकिकार्थालम्बनत्वान्न लौकिकार्थालम्बनत्वे साध्ये हेतोय॑भिचारो' विरोधो वेति' चेन्न, लौकिकालौकिकार्थालम्बनशून्यत्वानुमानेन हेतोद्यभिचारविरोधयोस्तबहिरर्थेकांतवादी को संतोष है वह स्वप्नादि ज्ञान का विषयभूत अलौकिक अर्थ है क्योंकि सर्वथा भी अविद्यमान पदार्थ का प्रतिभास वचन ही असंभव है। न उत्पन्न हुए न नष्ट हुये ऐसे खरविषाण को विषय करने वाले शब्द एवं ज्ञान भी लोक के अगोचर होने से अलौकिक अर्थ को विषय करने वाले हैं। अर्थात खरविषाण आदि शब्द एवं उनका ज्ञान भी अलौकिक अर्थ को विषय करने वाला होने से सर्वथा भी अविद्यमान नहीं है यह तात्पर्य समझना।। जैन-आपकी यह सभी मान्यता अलौकिक ही है अर्थात् वाचक शब्द और ग्राहक ज्ञान ये सभी लौकिक ही हैं। देखिये ! "जाग्रत अवस्था के सभी ज्ञान निरालम्बन ही हैं क्योंकि वे प्रत्ययज्ञान रूप ही हैं, स्वप्न ज्ञान के समान" । प्रश्न यह होता है कि यह परार्थानुमान अपने अर्थ से प्रतिबद्ध है या अप्रतिबद्ध ? इस प्रकार से इस परार्थानुमान ज्ञान में प्रश्न के होने पर यदि अपने अर्थ से अप्रतिबद्ध मानें तब तो उसी के द्वारा ही चेतस्त्व और विषयाकार निर्भास हेतु व्यभिचरित हो जावेंगे । अर्थात् परार्थानुमान ज्ञान को चित्त रूप स्वीकार करने पर अपने अर्थ से प्रतिबद्धत्व का अभाव होने से व्यभिचार दोष आ जावेगा। यदि इस परार्थानुमान ज्ञान को अपने अर्थ से प्रतिबद्ध मानोगे तब तो सभी ज्ञान सावलम्बन रूप नहीं हो सकेंगे अर्थात् "प्रत्ययत्वात्" इस अनुमान में ज्ञान हेतु निरालम्बन रूप अर्थ से प्रतिबद्ध होने से बाह्य अर्थ से प्रतिबद्ध है यह तात्पर्य होता है। बाह्यर्थंकवादी-"यह परार्थानुमान ज्ञान अलौकिक अर्थ का अवलम्बन लेने वाला है और जाग्रत अवस्था के ज्ञान लौकिक अर्थ का अवलम्बन लेने वाले हैं क्योंकि वे ज्ञान हैं।" इस प्रकार के अनुमान में लौकिक अर्थ का अवलम्बन साध्य करने पर हमारा हेतु व्यभिचारी अथवा विरोधी नहीं है। जैन-"सभी ज्ञान निरालंबन रूप हैं क्योंकि वे लौकिक एवं अलौकिक अर्थ के अवलंबन से शून्य ज्ञान रूप हैं।" इस प्रकार के लौकिक एवं अलौकिक अर्थ के अवलम्बन से शून्य रूप अनुमान के 1 ज्ञानत्वात् । ब्या० प्र०। 2 ता । ब्या० प्र०। 3 पूर्वोक्तहेतुद्वयेन लौकिकार्थालंबनत्वमन्तरेण बहिरर्थप्रतिबद्धत्वमात्रसाधनाल्लौकिकार्थालंबनत्वे साध्ये जायमानो व्यभिचारो विरोधो वा हेतोर्न भवतीतिभावः । दि० प्र०। 4 आह बहिरर्थवादी हे स्याद्वादिन घटपटादिलौकिकार्थालंबनत्वे साध्ये सति चेतस्त्वात् विषयाकारनिर्भासाच्च प्रत्ययस्य हेतो: स्वप्नादिविषयालोकिकार्थालम्बनत्वात् व्यभिचारो नास्ति विरोधश्च नास्तीति चेत् =स्या० एवं न। कस्माल्लौकिकार्थालौकिकार्थोभयविषयरहितत्वानुमानेन कृत्वा तव हेतो व्यभिचारविरोधी अवतिष्ठते घटेते यतः तृणाने करिणां शतमित्यादि वचनानां स्वप्नादिबुद्धीनाञ्च परस्परविरुद्धानामेववंविधार्थानां सकृदेकवारमपि स्वार्थसंबन्धस्य संवादत्वस्य न संभवतीति । दि० प्र.। 5 पूर्व । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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