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________________ ३९२ ] अष्टसहस्री [ स०प० कारिका ८१ सिद्धेः । तदेवं नान्तरङ्गार्थतैकान्ते बुद्धिर्वाक्यं वा सम्यगुपायतत्त्वं' संभवतीति स्थितम् । 'बहिरङ्गार्थतैकान्ते प्रमाणाभासनिन्हवात् । सर्वेषां कार्यसिद्धिः स्याविरुद्धार्थाभिधायिनाम् ॥८१॥ [ बहिरंगार्थतकांतमान्यतायां दोषानाहुः जैनाचार्याः । ] यत्किचिच्चेतस्तत्सर्वं साक्षात्परम्परया वा बहिरर्थप्रतिबद्धम् । 'यथाग्निप्रत्यक्षतरवेदनम् । स्वप्नदर्शनमपि चेतः, तथा विषयाकारनिर्भासात । साध्यदृष्टान्तौ पूर्ववद् । विवादापन्नं विज्ञानं साक्षात्परम्परया वा बहिरर्थप्रतिबद्धं, विषयाकारनिर्भासात् । यथाग्नि उत्थानिका-पुनः जो बहिरंग रूप ही पदार्थ को स्वीकार करते हैं उनकी भी एकांत मान्यता का निराकरण करते हुये आचार्य कहते हैं बाह्य अर्थ को ही यदि मानों, चेतन का बस नाश हुआ। तभी प्रमाणाभास-विपर्यय, संशय आदि समाप्त हुआ । पुनः विरोधी कथनी वाले, सबके सभी विरोधी मत । सच्चे हो जावेंगे फिर तो, नहीं रहें मिथ्यात्वी जन ।।१।। कारिकार्थ-घट-पटादि बाह्य पदार्थ ही एकांत से हैं अंतरंग पदार्थ नहीं हैं, ऐसी एकांत मान्यता में तो संशयादि रूप प्रमाणाभास का निन्हव हो जाने से सभी विरुद्धार्थ को कहने वालों की भी कार्यसिद्धि हो जावेगी क्योंकि बाह्य पदार्थ सभी सत्य रूप ही हैं ॥१॥ . [बहिरंग अर्थ मात्र ही है ऐसी एकांत मान्यता में जैनाचार्य दोष दिखाते हैं ।] ___ जो कुछ चित्त (ज्ञान) है वह सभी साक्षात् अथवा परम्परा से बाह्य पदार्थ से सम्बन्धित है। जैसे अग्नि का प्रत्यक्ष एवं अनुमान ज्ञान । स्वप्नदर्शन भी चित्त (ज्ञान) है क्योंकि उसी प्रकार से विषयाकार का निर्भास होता है । यहां अनुमान में साध्य और दृष्टांत पूर्ववत् हैं।। विवादापन्न विज्ञान साक्षात् अथवा परम्परा से बाह्य अर्थ से प्रतिबद्ध है क्योंकि विषय के 1 कारणं प्रमाणम् । ब्या० प्र०। 2 अत्र बहिरर्थवाद्याहान्तरङ्गस्य परमार्थतमोस्तु तहि बहिरर्थस्य परमार्थता अस्तु इत्येकान्ताभ्युपगमे सति सर्वेषां लोकसमयसंबन्धिपरस्परविरुद्धार्थप्रतिपादकानां शब्दबद्धिज्ञानानां कार्यसिद्धिः स्वार्थसंबन्धः प्रसज्येत कस्माल्लोकेऽसत्यप्रमाणनिराकरणादिति कारिकार्थः । दि० प्र०। 3 बाह्यार्थ सत्य एव । दि०प्र०14 परस्पर । दि०प्र०। 5 ज्ञानम् । ब्या० प्र०। 5 अनुमानं परं परयार्थसंबन्धम् । ब्या० प्र०। 7 प्रत्यक्षतरवेदन तथा स्वप्नदर्शनया इति पा० । ब्या० प्र० । 8 द्वितीयानुमानं विवृणोति । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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