SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तरंगार्थवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३६१ विप्रतिषिध्येत' ? स्वहेतुप्रतिनियमसंभवात् । इति सन्दिग्धव्यतिरेको हेतुर्न विज्ञप्तिमात्रतां साधयेत् । तस्मादयं विज्ञानवादी मिथ्यादृष्टिः परप्रत्यायनाय शास्त्रं विदधानः परमार्थतः संविदानो वा वचनं तत्वज्ञानं' च प्रतिरुणद्धीति न किंचिदेतत्, असाधनाङ्गवचनाददोषोद्भावनाच निग्रहार्हत्वात् । न ह्यस्य वचनं किंचित्साधयति' दूषयति वा, यतस्तद्वचनं साधनाङ्ग दोषोद्भावनं वा स्यात् । नापि किंचित्संवेदनमस्य सम्यगस्ति, येन मिथ्यादृष्टिर्न भवेत् । संविदद्वैतमस्तीति चेन्न, तस्य स्वतः परतो वा ब्रह्मवदप्रतिपत्तेर्यथासंवेदनं मिथ्यात्व ही अपने हेतुओं का प्रतिनियम सम्भव है । अत: यह सहोपलंभ हेतु संदिग्ध व्यतिरेकी हेतु है यह विज्ञानमात्र तत्त्व को सिद्ध नहीं कर सकता है। अत: आप विज्ञानाद्वैतवादी के यहां अनुमान में प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत को दूषित कर देने से आप विज्ञानाद्वैतवादी मिथ्यादष्टि हैं। पर को समझाने के लिये शास्त्रों की रचना करते हुए स्ववचनों का ही निराकरण कर देते हैं अथवा जानते हये करण कर देते हैं अथवा जानते हुये परमार्थ से विज्ञानमात्र रूप तत्त्व का ही निराकरण कर देते हैं। इसलिये उसके यहां कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि आपके यहां बाह्य पदार्थ को सिद्ध करने में साधनांग वचन के न होने से एवं दोषों का उद्भावन भी न करने से आप सौगत निग्रह के ही योग्य हो जाते हैं। आपके वचन विज्ञान मात्र को एवं बाह्य पदार्थ को किसी को न सिद्ध कर सकते हैं न दूषित ही कर सकते हैं जिससे कि वे वचन साधनांग या दोषोद्भावन रूप हो सकें। अर्थात् नहीं हो सकते हैं । आपके यहां ज्ञान भी समीचीन रूप कुछ नहीं है कि जिससे आप मिथ्यादृष्टि न बन सके । अर्थात् आप मिथ्यादृष्टि ही बन जाते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी-हमारे यहाँ संवेदनाद्वैत रूप ज्ञान सम्यक् ही है। जैन-नहीं, क्योंकि वह संवेदनमात्र तत्त्व ब्रह्माद्वैत के समान न स्वतः ही सिद्ध है न पर से जाना जा सकता है। कारण संवेदन के स्वरूप का विचार करने पर तो वह निरंश विज्ञान मात्र सिद्ध नहीं हो पाता है प्रत्युत वह संवेदन अंश सहित, कथंचित् और नित्य रूप ही सिद्ध होता है। अतएव यह विज्ञानमात्र तत्त्व मिथ्यात्व रूप है यह बात सिद्ध हो जाती है। इसीलिये अंतरंगार्थ रूप एकांतविज्ञान मात्र तत्त्व को स्वीकार करने पर बुद्धि-ज्ञान अथवा वचन रूप सम्यक् उपाय तत्त्व सम्भव ही नहीं है यह बात स्थित हो गई। विरुद्धयेत् । ब्या० प्र०। 2 ज्ञानाथयोर्यों हेतुः कारणं तस्मात् । दि० प्र०। 3 तत्त्वस्य ग्राहकं ज्ञानम् । ब्या० प्र०। 4 एतत् । ब्या० प्र०। 5 साधनांगं यच्छास्त्रं न भवति । ब्या० प्र०। 6 विज्ञानाद्वैतवादिनः । ब्या०प्र०। 7 स्वेष्टम् । दि० प्र०। ४ स्वनिष्ठम् । दि० प्र०। 9 नवम्। ब्या० प्र.। 10 सौगतस्य । दि० प्र० । 11 स्वमतम् । दि० प्र० । 12 परमतस्य । दि० प्र.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy