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________________ अन्तरंगार्थवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३८५ साधनात्पूर्वं यथाप्रतीति वस्तुनो व्यवस्थानादिति समाधाने तत एव सौगतस्यापि तदेव समाधानमस्तु, विचारात्पूर्व सर्वस्याविचारितरमणीयेन रूपेण यथाप्रतीति साध्यसाधनव्यवहारप्रवृत्तेरन्यथा विचाराप्रवृत्तेः । सिद्धे तु विज्ञप्तिमात्रे न कश्चित्साध्यसाधनव्यवहारं 'प्रतनोति सौगतो, नापि परेषां तद्दोषोद्भावनेवकाशोस्ति, इति केचितु, तेपि 'न विचारचतुरचेतसः, किंचिनिर्णीतमाश्रित्यान्यत्रानिर्णीतरूपे 'तदविनाभाविनि विचारस्य प्रवृत्तेः, सर्वविप्रतिपत्तो तु क्वचिद्विचारणानवतरणात् । इति विचारात्पूर्वमपि विचारान्तरेण निर्णीते एव साध्यसाधनव्यवहारस्तद्गुणदोषस्वभावश्च निश्चीयते । न चैवमनवस्था, संसारस्यानादित्वात् क्वचित्कस्यचित्कदाचिदाकांक्षानिवृत्तेविचारान्तरानपेक्षणात् । ततो युक्तमेव स्याद्वादिनः विज्ञानाद्वैतवादी-ऐसा समाधान करने पर तो यथा-प्रतीति वस्तु की व्यवस्था करने से ही हम सौगत को भी वही समाधान हो जावे। अर्थात् जैसे आप जैनियों के यहाँ गुण और दोष हैं वैसे ही हम सौगतों के यहाँ भी विज्ञान मात्र ही तत्त्व होवे क्या बाधा है ? क्योंकि विचार के पहले सभी वादियों के यहाँ अविचारित रमणीय रूप से यथा-प्रतीति, साध्य-साधन व्यवहार की प्रवृत्ति होती है। अन्यथा-यदि ऐसा न मानों तो विचार ही प्रवृत्त नहीं हो सकेगा, किन्तु विज्ञान मात्र तत्त्व के सिद्ध हो जाने पर कोई भी बौद्ध साध्य-साधन व्यवहार को नहीं करता है एवं आप जैनियों को भी उन दोषों के उद्भावन करने के लिए अवकाश नहीं मिल सकता है। जैन-ऐसा कहने वाले भी आप बौद्ध विचारशील नहीं दिखते हैं क्योंकि किञ्चित् निर्णीत ही साध्य-साधन का आश्रय लेकर के उसके साथ अविनाभावी अनिर्णीत रूप में विचार प्रवृत्त होता है क्योंकि सर्वत्र विसंवाद साध्य-साधन आदि में सन्देह के होने पर तो विचार ही नहीं किया जा सकता है । अर्थात् जैसे अजैन का अविनाभावी जैन है, वैसे ही अनिर्णीत का अविनाभावी निर्णीत है। कहीं कुछ निर्णीत है, इस बात को मानने पर ही अनिर्णीत की परीक्षा की जा सकती है अन्यथा नहीं की जा सकती है। इस प्रकार से विचार के पहले भी विचारान्तर से निर्णीत में ही साध्य-साधन व्यवहार का और उस साध्य-साधन के गुण-दोष स्वभाव का निश्चय किया जाता है। इस प्रकार से हमारे यहाँ अनवस्था भी नहीं आती है क्योंकि संसार तो अनादि है, कहीं पर किसी (वीतरागादि) पुरुष की किसी काल में आकांक्षा की निवृत्ति हो जाने से विचारान्तरों की अपेक्षा नहीं रहती है। अतः आपके यहाँ प्रतिज्ञा दोष को प्रकट करना और हेतु दोष को प्रकट करना हम स्याद्वादियों को युक्त ही है। अर्थात् हम स्याद्वादियों के द्वारा दिये गये प्रतिज्ञा दोष और हेतु दोष आप पर लागू हो जाते हैं। नील और नीलज्ञान में अभेद है, आपकी यह प्रतिज्ञा भी दूषित है एवं "सहोपलंभनियमात्" 'अर्थ 1 वादिनः । दि० प्र०। 2 करोति । दि० प्र०। 3 साध्यसाधनदोषः । दि० प्र०। 4 प्रतिज्ञा। दि० प्र० । 5 विज्ञानवादिनः । दि० प्र०। 6 साध्यं साधनञ्चोर्द्धत्वञ्च । ब्या० प्र०। 7 निर्णीत। दि०प्र०। 8 विचारान्तरेपि पूनविचारान्तरेण भाव्यमिति । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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