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________________ ३८४ ] अष्टसहस्री [ स०प० कारिका ८० विज्ञानवादिनोऽप्रसिद्धविशेष्यत्वमप्रसिद्धविशेषणत्वं च 'प्रतिज्ञादोष: स्यात्, नीलतद्धियोविशेष्ययोस्तदभेदस्य च विशेषणस्य स्वयमनिष्टेः । पराभ्युपगमेन प्रसङ्गसाधनस्योपन्यासाददोष इति चेन्न, तस्य परासिद्धेस्तदभ्युपगमाप्रसिद्धेश्च प्रसङ्गसाधनासंभवात् । 'साधनसाध्यधर्मयोप्प्यव्यापकभावसिद्धौ हि सत्यां परस्य व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनानन्तरीयको यत्र प्रदर्श्यते तत्प्रसङ्गसाधनम् । न चैतद्विज्ञप्तिमात्रवादिनः संभवति, विरोधात् । ननु स्याद्वादिनोपि तद्दोषोद्भावनमयुक्तं विज्ञप्तिमात्रवादिनं प्रति, तस्य तदसिद्धेः, विज्ञप्तिमात्रव्यतिरेकेण 'दोषस्याप्यभावाद्गुणवत् । स्वाभ्युपगममात्रादेव तत्संभवः, परस्य विज्ञप्तिमात्र "मैं सदा मौनव्रती हूँ" इस प्रकार इस कथन के समान आप स्ववचन विरोध को ही स्वीकार करते हैं । उसी प्रकार से आप विज्ञानाद्वैतवादी के यहां अप्रसिद्ध विशेष्य और अप्रसिद्ध विशेषण रूप प्रतिज्ञा दोष भी आ जाता है क्योंकि नील और नीलज्ञान रूप विशेष्य में उसका अभेद रूप विशेषण स्वयं ही आप विज्ञानाद्वैतवादी को इष्ट नहीं है। अर्थात् आपने ज्ञान को छोड़कर और कोई अभेद स्वीकार ही नहीं किया है। विज्ञानाद्वैतवादी- आप जैन आदिकों ने जिसे स्वीकार किया है उसी के द्वारा प्रसंग को सिद्ध करने में हमें कोई दोष नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कहना क्योंकि आप विज्ञानवादी के यहाँ तो पर ही असिद्ध है, पुनः उनके द्वारा स्वीकृत बात भी असिद्ध ही है। अतः आपके द्वारा पर की स्वीकृति को लेकर प्रसंग को सिद्ध करना असंभव है । साधन और साध्य धर्म में व्याप्य-व्यापक भाव की सिद्धि के होने पर (हम जैनादि) के यहाँ व्याप्य-सहोपलंभ की स्वीकृति है । वह व्यापक-ऐक्य की स्वीकृति के साथ अविनाभावी रूप है, वह जिस अनुमान में प्रदर्शित की जाती है उसे ही प्रसंग साधन कहते हैं और यह बात ज्ञान मात्र को ही मानने वाले आप विज्ञानाद्वैतवादी के यहाँ सम्भव ही नहीं है क्योंकि विरोध आता है। विज्ञानवादी-तब तो आप स्याद्वादियों को भी इसी प्रकार से हम विज्ञान मात्र मानने वाले अद्वैतवादियों के प्रति प्रतिज्ञा हेतु दोष का उद्भावन करना अयुक्त है क्योंकि हमारे यहाँ वे दोष सिद्ध नहीं हो सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ विज्ञान मात्र को छोड़कर कोई गुण नहीं है वैसे ही विज्ञान मात्र को छोड़कर कोई दोष भी हमारे यहाँ नहीं है। जैन-हम जैनियों की स्वीकृति मात्र से ही आपके यहाँ ये दोष सम्भव हैं। आपके यहाँ विज्ञान मात्र को सिद्ध करने के पहले ही हम जैनों ने प्रतीति के अनुसार वस्तु की व्यवस्था कर दी है अर्थात् आपके यहाँ प्रतिज्ञा दोष, हेतु दोष सम्भव है ऐसा कह दिया है। 1 साध्यधर्मादि । ब्या० प्र०। 2 ता। दि० प्र० । 3 व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च-सहोपलम्भः। दि० प्र० । 4 अभेदेन सह। दि० प्र०। 5 भावाद्गुणावस्था। इति पा० । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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