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________________ अन्तरंगार्थवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३८३ [ यदि विज्ञानमात्रं तत्त्वं भवेत्तहि साध्यहेतू उभी न संभवतः । ] प्रतिज्ञादोषस्तावत्स्ववचनविरोधः साध्यसाधनविज्ञानस्य 'विज्ञप्तिमात्रमभिलपतः प्रसज्यते। तथाहि । सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धि योद्विचन्द्रदर्शन वदित्यत्रार्थसंविदोः 'सहदर्शनमुपेत्यैकत्वैकान्तं साधयन् कथमवधेयाभिलापः ? स्वोक्तधर्ममिभेदवचनस्य हेतुदृष्टान्तभेदवचनस्य चाद्वैतवचनेन "विरोधात्, संविदद्वैतवचनस्य च तद्भदवचनेन 12च्याघातात्, तद्वचनज्ञानयोश्च भेदे तदेकत्वसाधनाभिलापविरोधात्, तदभिलापे वा तद्भदविरोधात् । इति "स्ववचनयोविरोधादबिभ्यत्15 16स्वाभिलापाभावं वा स्ववाचा प्रदर्शयन्कथं स्वस्थः ? सदा मौनव्रतीकोहमित्यभिलापवत् स्ववचनविरोधस्यैव स्वीकरणात् । तथा [ यदि विज्ञान मात्र तत्त्व माना जावे तब तो साध्य और हेतु दोनों ही संभव नहीं होंगे।] साध्य-साधन विज्ञान को केवल विज्ञान मात्र कहने वालों के यहां प्रतिज्ञा दोष अर्थात् स्ववचन विरोध दोष आ जावेगा। तथाहि-नील और नीलज्ञान में अभेद है क्योंकि दोनों को एक साथ उपलब्धि का नियम देखा जाता है दो चंद्र के दर्शन के समान । इस प्रकार से पदार्थ और ज्ञान । स्वाकार करके एकत्वकांत को सिद्ध करता हआ अवधेय का अपलाप कैसे कर सकता है ? अर्थात् वाच्य-पदार्थों का लोप कैसे कर सकेगा और स्ववचन विरोधी कैसे नहीं होगा। अपने द्वारा कहे गये धर्म और धर्मी के भेद रूप वचन में एवं हेतु और दृष्टांत के भेद वचन में अद्वैत वचन से विरोध आता है और संवेनाद्वैत के वचन में साध्य धर्मादि भेद रूप वचनों के साथ विरोध आता है । तद्वचन और ज्ञान (नोलशब्द और नीलज्ञान) में भेद कहने पर उनमें एकत्व को सिद्ध करने रूप वचन का विरोध है। अथवा यदि एकत्वरूप वचन को आप कहते हैं तब तो उनमें भेद का विरोध आ जाता है। इस प्रकार से अभेद और भेदरूप स्ववचन में विरोध से डरते हुये अथवा अपने वचनों के अभाव को अपने वचनों से ही प्रदर्शित करते हुये आप स्वस्थ कैसे कहे जा सकते हैं ? म् । ब्या० प्र०। 2 संवेदनाद्वैतवादिना। दि० प्र०। 3 ज्ञानम् । ब्या० प्र०। 4 सहोपलम्भनियमादभेदो द्विचन्द्रयोरिव । ब्या० प्र०। 5 अनुमाने । दि० प्र० । 6 आह सं० पर: नीलनील ज्ञानयोः पक्षोभेदो भवतीति साध्यं युगपदर्शने नियमात् । यथा द्विचन्द्रदर्शनस्याभेदः सहोपलम्भनियमाश्चायं तस्मादभेद इति = स्याद्वादी अत्रानुमाने नीलतदज्ञानयोः सह ग्रहणमङ्गीकृत्य सर्वथा संविदद्वैतं साधयन्नन्तस्तत्त्ववादी कथमुपादेयवचनो भवत्यपितु न भवति कस्मात् । स्वप्रतिपादनपक्षवचनं हेतुदृष्टान्तभेदवचनञ्चाद्वैतवचसा विरुद्धयते यतः । दि० प्र०17 ताद्धिः । ब्या० प्र०। 8 नैव । दि० प्र०। 9 आदरणीयः । ब्या० प्र०। 10 साध्यधर्मादिभेदः । दि० प्र०। 11 ज्ञानाद्वैतवादिना । दि० प्र०। 12 च । ब्या० प्र०। 13 तद्वचनज्ञानयोरभेदः सहोपलम्भनियमादिति । ब्या० प्र०। 14 सकात् । ब्या० प्र०। 15 भीति गच्छन् । ज्या०प्र०। 16 तहि भेदोऽभेदो वा मया नोच्यत इत्युक्त आहुः । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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