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________________ ३८२ ] अष्टसहस्री [ स०प० कारिका ८० नुमानज्ञानयोडिग्राहकाकारयोरभ्रान्तत्वे ताभ्यामेव हेतोय॑भिचारात्, 'तभ्रान्तत्वे ततः सर्वस्य भ्रान्तत्वप्रसिद्धेः, सर्वभ्रान्तौ साध्यसाधनविज्ञप्तेरसंभवात्तद्व्याप्तिविज्ञप्तिवत्, संभवे सर्वविभ्रमासिद्धेः । *साध्यसाधनविज्ञप्तेयदि विज्ञप्तिमात्रता । न साध्यं न च हेतुश्च 'प्रतिज्ञाहेतुदोषतः । ८० । स्वप्न और इन्द्रजालादि का ज्ञान और उसी प्रकार से "यह प्रत्यक्षादिक भ्रांत रूप हैं" उसका भी निराकरण कर दिया गया है ऐसा समझ लेना चाहिए। भ्रांतत्व और प्रकृत अनुमान ज्ञान में ग्राह्य और ग्राहकाकार को अभ्रांत रूप स्वीकार करने पर तो उन ग्राह्य ग्राहकाकार रूप भ्रांतत्व और प्रकृत अनुमान के द्वारा ही आपका हेतु व्यभिचरित हो जायेगा । अर्थात् उपर्युक्त अनुमान में कहा जाता है कि ग्राह्य-ग्राहकाकार भ्रांत हैं इस अनुमान से भ्रांतत्व को तो ग्राह्य बनाकर यह अनुमान आप ही तो ग्राहक बन बैठा है। यदि आप इन प्रकृत ग्राह्य-ग्राहकाकार को भ्रांत कहेंगे तब इन्हीं दोनों के द्वारा आपका हेतु व्यभिचरित हो जावेगा। यदि आप इन दोनों को भ्रांत मानोगे तब तो इस प्रकृत अनुमान से सभी भ्रांत ही सिद्ध होंगे एवं सभी को भ्रांति रूप मान लेने पर तो जिस प्रकार से प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से साध्य-साधन व्याप्ति की विज्ञप्ति असम्भव है तथैव साध्य-साधन की विज्ञप्ति भी असंभव हो जावेगी। यदि साध्य-साधन की विज्ञप्ति आप स्वीकार करेंगे तब तो सभी अंतर्बाह्य तत्त्व को विभ्रमरूप सिद्ध नहीं कर सकेंगे। इसी को अगली कारिका द्वारा स्पष्ट करते हैं। साध्य हेतु का ज्ञान यदी बस ! ज्ञान मात्र माना जावे। सब तो साध्य नहीं होगा, हेतू दृष्टांत नहीं होंगे। चूंकि "प्रतिज्ञादोष" कहा जो, स्ववचन बाधित आवेगा। "हेतु दोष" है असिद्धादि ये, आते सब दूषित होगा ।।८।। कारिकार्थ- साध्य और साधन की विज्ञप्ति को यदि विज्ञान मात्र ही स्वीकार किया जावे, तब तो प्रतिज्ञा और हेतु के दोष से न साध्य ही सिद्ध होगा न हेतु एवं दृष्टांत ही बन सकेंगे ॥८॥ 1 अनुमानात् । दि० प्र०। 2 किञ्च । ब्या० प्र०। 3 साध्यसाधनयोः । दि० प्र०। 4 ज्ञानस्य । दि० प्र० । 5केवलज्ञानरूपत्वम् । दि० प्र० । 6 अभ्युपगम्यते त्वया । दि० प्र०।? तावेव ज्ञानाद्वैतवादिनो नीलतदद्वयोः पक्षरूपयोरभेदे साध्यरूपेऽगीक्रियमाणेसहोपलम्भनियमादिति हेत्वङ्गीकारे द्विचन्द्रदर्शनवदिति दृष्टान्ताभिधाने सति कथं ज्ञानाद्वैत व्यवतिष्ठते कुतः प्रतिज्ञाहेतुसाध्यदृष्टान्ताद्यंगीकाराव स्ववचन विरोध एव प्रतिज्ञाहेतुस्तस्मात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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