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अष्टसहस्री
[ स प० कारिका ८०
प्रतिज्ञादोषोद्भावनं हेतुदोषोद्भावनंच । तथा हि । 'अयं पृथगनुपलम्भाद्भेदाभावमात्रं साधयेनीलतद्धियोः । तच्चासिद्धं, संबन्धासिद्धेरभावयोः खरशृङ्गवत् । सिद्धे हि धूमपावकयोः कार्यकारणभावे संबन्धे कारणाभावात्कार्यस्याभावः सिध्यति । सति च शिंशपात्ववृक्षत्वयोर्व्याप्यव्यापकभावे व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो नान्यथा । न चैवं भेदपृथगुपलम्भयोः संबन्धः क्वचित्सिद्धो, विरोधाद्विज्ञप्तिमात्रवादिनो यतः पृथगुपलम्भाभावो भेदाभावं साधयेत् इति न निश्चितो हेतुः । एतेनासहानुपलम्भादभेदसाधनं प्रत्युक्तं, भावाभावयोः संबन्धासिद्धेर
और ज्ञान एक साथ उपलब्ध नहीं होते हैं' यह हेतु भी दूषित ही है । तथाहि ! आप बौद्ध नील एवं नीलज्ञान में भेद का अभावमात्र सिद्ध करते हैं तो क्या पृथक् उपलब्धि न होने से सिद्ध करते हैं ? यदि ऐसी बात है तब तो आपका यह "पृथगनुपलब्धि" हेतु भी असिद्ध हो है क्योंकि पृथक् उपलंभाभाव तो हेतु है एवं भेदाभाव साध्य है । इन दोनों ही अभाव रूप साध्य-साधन में खरविषाण के समान सम्बन्ध हो असिद्ध है ।
[ इस पर बौद्ध कहता है कि अभाव हेतु से अभाव साध्य को सिद्ध करना असिद्ध नहीं है जैसे कि अग्नि के अभाव से घुयें के अभाव को सिद्ध करना । इस शंका के होने पर जैन कहते हैं कि ]
धूम और पाक में कार्य कारण भाव सम्बन्ध के का अभाव सिद्ध हो सकता है । शिशपात्व और वृक्षत्व में के अभाव से व्याप्य का अभाव सम्भव है अन्यथा नहीं । इस प्रकार से भेद और पृथक् उपलब्धि का अविनाभाव सम्बन्ध कहीं पर भी सिद्ध नहीं है । क्योंकि आप अद्वैतवादियों के यहाँ विरोध आता है, इसलिये आपके यहाँ यह पृथक् उपलम्भाभाव हेतु भेद के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकता है । अतएव यह हेतु निश्चित नहीं है । इसी कथन से " असहानुपलंभात्" हेतु से अभेद को सिद्ध करने वालों का भी खण्डन कर दिया गया है क्योंकि अभेद और पृथक् अनुपलब्धिरूप भाव अभाव में भी सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता है, अविशेष होने से । तादात्मय और तदुत्पत्तिरूप में ( सह सम्बन्ध और क्रम सम्बन्ध ) अर्थ स्वभाव निश्चित है ।
सिद्ध होने पर ही कारण के अभाव में कार्य व्याप्य व्यापक भाव के होने पर ही व्यापक
1 विज्ञानाद्वैतवादी । दि० प्र० । 2 पृथगनुपलम्भादित्यादिना विकल्पसमूहेन सहोपलम्भनियमादिति हेतुस्वरूपं विचारयति । ब्या० प्र० । 3 एवं संविन्मात्रवादिनः भेदपृथगुपलम्भयोः संबन्धः क्वचिद्वस्तुनि सिद्धो न कुतो विरोधात् । दि० प्र० । 4 स्या० वदति है संवेदवादिन् ! अनुमानमन्वयव्यतिरेकसंबन्धाभ्यां सिद्ध ं सत् स्वसाध्यं सति यथा यत्राग्निस्तत्र धूमः । यत्राग्निर्नास्ति तत्र धूमो नास्ति इति व्यतिरेकः । तथा तत्र नीलतद्धियोर्भेदस्तत्र पृथगुपलम्भयोर्व्यतिरेकलक्षणः संबन्धः क्वचिद्वस्तुनि तव विज्ञानमात्रवादिनः सिद्धो न । सिद्धो भवति चेत्तदा तव मतमभेदरूपं हीयते । दि० प्र० । 5 आह परः हे स्याद्वादिन् सहानुपलम्भादिति हेतुना भेदं साधयामि । स्या० वदति एतेन पृथगनुपलम्भादभेदसाधन निराकरणद्वारेण सहानुपलम्भादभेदसाधनञ्च निराकृतं कस्मात्तव नीलज्ञानं भावात्मकमिति भावाभावयोः संबन्धाघटनात् । कुतः संबन्धो न घटतेऽभावाभावयोरिवात्रापि भावाभावयोविशेषाभावात् । दि० प्र० । 6 पृथक् । दि० प्र० । 7 ऐक्यम् ।
ब्या० प्र० ।
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