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________________ अन्तस्तत्त्ववाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३७६ पलम्भत्वव्यवस्थितेः, व्यवसायाभावे तु बुद्धीनामभ्यासादपि तथानुपलम्भात् । न हि तथा बुद्धयः संविद्रते यथा व्यावर्ण्यन्ते, क्षणिकत्वाद्यात्मनान्यथैव तासां प्रतिभासनाभ्याससिद्धः । नापि परतः क्षणिकत्वादि सिध्यति, संबन्धप्रतिपत्तेरयोगात् । न हि 'सत्वादेलिङ्गस्य क्षणिकत्वादिना व्याप्त्या संबन्धप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षतो युज्यते, तस्य सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्च । नाप्यनुमानादनवस्थानादिति प्रागेव 'प्ररूपणात् । 1 स्वांशमात्रा का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि भिन्न प्रमाण की अपेक्षा से रहित व्यवसायात्मक ज्ञान की ही उपलब्धी देखी जाती है । ज्ञान में व्यवसायात्मक का अभाव मान लेने पर तो अभ्यास से भी उस प्रकार की उपलब्धि नहीं हो सकेगी। कारण क्षणिक रूप वस्तु उपलब्ध ही नहीं होती है क्योंकि जिस प्रकार से आप बौद्धों ने वर्णन किया है उस प्रकार से ज्ञानों का प्रतिभास नहीं देखा जाता है किन्तु क्षणिकत्वाद्यात्मक से भिन्न अन्यथा रूप (नित्यत्व आदि रूप) से ही ज्ञानों के प्रतिभासन का अभ्यास सिद्ध है। तथा पर-अनुमान से भी क्षणिकत्वादि की सिद्धि नहीं होती है क्योंकि साध्य और साधनके सम्बन्ध व्याप्तिज्ञान का ही अभाव है। सत्त्वादि हेतु की क्षणिकत्वादि के साथ व्याप्ति होने से प्रत्यक्ष से अविनाभाव का ज्ञान हो जावेगा ऐसा कहना भी शक्य नहीं है क्योंकि वह प्रत्यक्ष तो सन्निहित पूरोवर्ति विषय के बल से ही उत्पन्न होता है तथा वह निर्विकल्प होने से अविचारकअव्यवसायात्मक ही है। अनुमान से भी उस क्षणिकत्व आदि की सिद्धि नहीं है क्योंकि व्यवस्था नहीं बन सकती है ऐसा हमने पहले ही "सत्त्वमेवासि निर्दोष" इत्यादि कारिका के व्याख्यान में निरूपण कर दिया है। स्वांशमात्र का अवलम्बन लेने वाले मिथ्याविकल्प से प्रकृत-क्षणिकत्वादि की व्यवस्था 1 आहान्तस्तत्त्ववादी हे स्या• संविदामभ्यासबलात् स्वस्य क्षणिकत्वादीनामनुभवोस्तीति उक्ते स्याद्वाद्याह निश्चयाभावे तु कृताभ्यासादपि तथा क्षणिकत्वं नोपलभ्यते । दि० प्र०12 संवित्तेः । इति पा० । दि० प्र०। 3 यथा क्षणिकत्वाद्यात्मना परावर्ण्यन्ते तथा न प्रतिभासन्ते । ब्या० प्र० । 4 तासां बुद्धीनां ज्ञानाभ्यासघटनात् = यथाविज्ञानवादिनः संविदां क्षणिकत्वादि स्वतो न सिद्धयति तथाऽन्यप्रमाणादपि न । दि० प्र०। 5 ता। ब्या० प्र०। 6 सर्वसंविदाम् । ब्या० प्र०। 7 आह स्याद्वादी संविदां क्षणिकत्वादिकं परस्मात्त्रमाणादपि न सिद्धयति । अनुमानात्सिद्धयतीति चेत् । न । व्याप्तेरभावेऽनुमानाऽचटनात् =संवेदनवादी आह । अस्माकं व्याप्तिरस्तीति चेत् । स्या० आह सा व्याप्तिः प्रमाण सिद्धा नास्ति । कथमित्युक्त आह । सर्व क्षणिक सत्त्वात् । इत्यादि तवानुमाने क्षणिकत्वादिना कृत्वा सत्त्वादेलिङ्गस्य व्याप्त्या प्रत्यक्षतो निर्विकल्पकदर्शनात्संबन्धप्रतिपत्तिनं हि युज्यते । कस्मात्तस्य प्रत्यक्षस्यातिनिक टार्थबलादुत्पादात् । पुनर्विचाररहितत्वाच्च = तथानुमानादपि संबन्धप्रतिपत्तिर्न युज्यते । तदनुमा व्याप्त्या सिद्ध्यति । सा प्रत्यक्षतः पूर्ववत्सिद्धा नानुमानादिति चेत्तस्यापि व्याप्तिप्रत्यक्षतः सिद्धा न । अनुमानादित्याद्यनवस्थानादिति दोषः प्रागेव प्रतिपादितः । दि० प्र०। 8 सर्वसंविदाम् । साध्येन। दि० प्र०। 9 किञ्च । दि० प्र०। 10 अहमिति स्वांशनिश्चयः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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