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________________ ३८० ] अष्टसहस्री [ स० ५० कारिका ७६ वलम्बिना मिथ्याविकल्पेन 'प्रकृततत्त्वव्यवस्थापने बहिरर्थेष्वप्यविरोधात् क्षणिकत्वादिव्यवस्थापनमस्तु सौत्रान्तिकादीनाम्, अविशेषात् । तथाहि । कथंचिदत्र वेद्यलक्षणं यदि व्यवतिष्ठेत तदा तत्प्रकृतं संविदां क्षणिकत्वादिसाधनं लैङ्गिकज्ञानेन कृतं स्यान्नान्यथा। न 'चानुक्तदोषं लक्षणमस्ति, वेद्यस्य विज्ञानवादिना तज्जन्मादेरनैकान्तिकत्वदोषवचनात् । संवितक्षणिकत्वादावनुमानवेदनस्य तत्संभवे नान्यत्र बहिरर्थे तदसंभवोभिधेयः, सर्वथा विशेषाभावात् । 'तत्स्वपरपक्षयोः सिद्धयसिद्ध्यर्थ किंचित्कथंचित्कुतश्चिदवितथज्ञानमादरणीय करने पर तो बाह्य पदार्थों में भी क्षणिकत्व अविरोध रूप से सिद्ध हो जायेगा। सौतांत्रिक, योग, सांख्यों के यहाँ मानी गई क्षणिक, नित्य आदि पदार्थों की व्यवस्था को भी आप विज्ञानाद्वैतवादी को स्वीकार कर लेना चाहिये क्योंकि योगाचार और सौतांत्रिक में तो कोई अन्तर नहीं रह जाता है। तथाहि कथंचित-तदुत्पत्ति आदि प्रकार से इन ज्ञानों में यदि वेद्य लक्षण ब्यवस्थित हो सके अर्थात् संवेदनाद्वैत यदि किसी प्रकार से वेद्य हो सके तब क्षणिकत्व, अनन्यवेद्यत्व एवं नानासंतानत्व हेत ज्ञान में अनमान ज्ञान से सिद्ध किये जा सकें अन्यथा नहीं, किन्त आप ज्ञानाद्वैतवादियों के यहाँ वेद्य का लक्षण दोषरहित नहीं है क्योकि आप ज्ञानाद्वैतवादियों ने तज्जन्मादि में अनेकांतिक दोष कहे हैं। ज्ञान को क्षणिक आदि सिद्ध करने में अनुमान ज्ञान में उस वेद्य लक्षण के संभव होने पर अन्यत्र-बाह्य पदार्थ में उस वेद्य लक्षण को असंभव नहीं कहना चाहिये क्योंकि सर्वथा भेद के नियामक का अभाव है। अर्थात् जैसे आप विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ज्ञान को क्षणिक सिद्ध करने के लिये 1 स्वस्वरूपविषयिणा । ब्या०प्र०। 2 अनुमानेन । ब्या० प्र०। 3 अङ्गीक्रियमाणे विज्ञानाद्वैतवादिना । ब्या०प्र०। 4 तज्जन्यादीनां योग्यतया वा। दि०प्र०15 तथाहि । यदि अत्र संविदि केनचित्प्रकारेण क्षणिकत्वादिकं वेद्यलक्षणमस्ति । तदान्तरङ्गज्ञानानामनुमानेन कृतं क्षणिकत्वादि साधनमस्ति अन्यथानुमानानङ्गीकारे सति क्षणिकत्वादिसाधनं न घटत एवं सति किमायातं विज्ञानवादिनां क्षणिकत्वादिकं वेद्यलक्षणं बहिस्तत्त्ववादिवत्पूर्वोक्तदोषसहितं भवति कस्मात्तज्जन्मतादूप्यतदध्यवसायानां चक्षुरादिभिर्व्यभिचारित्वदोषकथनात कोर्थ : यथात्वयाऽन्तस्तत्त्ववादिना बहिरर्थवादिनं प्रति दूषणमुद्भावि तथा तवाप्यायातम् = पुनः स्याद्वादी संविदां क्षणिकत्वादो साध्येऽनुमानप्रमाणस्य क्षणिकत्वादिसंभवे सति तदान्यत्र बहिरर्थे तस्य क्षणिकत्वादेरसंभव: कार्यो न । कुत उभयत्र सर्वथाविशेषात् । दि० प्र०। 6 सिद्धिः । ब्या० प्र०। 7 केनचित्प्रकारेण वेद्यलक्षणं भविष्यतीत्याशंकायामाह ब्या०प्र० । 8 विज्ञानवादिनो लक्षणमुक्तदोषमायातम् । ब्या०प्र०। 9 आह स्याद्वादी यत एवं तत्तस्मात्स्वपक्षसाधनाथं परपक्षनिराकरणार्थं किञ्च न प्रमाणं केनचित्प्रकारेण कुतश्चित्स्वतो परतो वा सिद्धं यत्सत्यज्ञानं स्वार्थव्यवसायात्मकं सद्विचार्य विज्ञानवादिना ग्राह्यम् । अन्यथा सत्यज्ञानग्रहणाभावे सौत्रान्तिकादीनां बहिरर्थविकल्पः सर्यो भ्रांत इति न सिद्धयति यतः । दि. प्र०। 10 अभ्रांतः। दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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