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________________ ३७८ ] अष्टसहस्री [ स० ५० कारिका ७६ पयेत् ? कथं 'च कार्यकारणभावाख्यं प्रभवं काश्चन प्रति योग्यतां वा तल्लक्षणतया व्यभिचारयेत् ? कथं च संवित्तिरेव खण्डशः प्रतिभासमाना वेद्यवेदकादिव्यवहाराय प्रकल्पते इत्यभिनिवेशं वा विदधीत ? यतो न प्रमाणं मृगयते । किञ्चास्य विज्ञानवादिनः संविदा क्षणिकत्वमनन्यवेद्यत्वं'नानासंतानत्वमिति स्वतस्तावन्न सिध्यति, भ्रान्तेः स्वप्नवत् । स्वसंवेदनात्स्वतः सिध्यतीति चेन्न, क्षणिकत्वेनानन्यवेद्यत्वेन नानासंतानत्वेन च नित्यत्वेन सर्ववेद्यत्वेनैकत्वेनेव परब्रह्मणः स्वसंवेदनाभावात् । तथात्मसंवेदनेपि व्यवसायवैकल्ये प्रमाणान्तरापेक्षयानुपलम्भकल्पत्वात्, 10तस्य प्रमाणान्तरानपेक्षस्यैव व्यवसायात्मनः संवेदनस्यो अथवा प्रमाण के अभाव में कार्यकारणभाव नाम का प्रभव-वेद्य-वेदक लक्षण, किसी योग्यता के प्रति उस वेद्य-वेदक लक्षण रूप से कैसे व्यभिचरित कर सकेंगे ? अर्थात् अग्निरूप कार्य का अरणिकाष्ठ कारण है इत्यादि कार्यकारण नाम वाला वेद्यवेदक लक्षण भाव है उसे प्रभव कहते हैं। सांख्या अर्थ और ज्ञान में कार्यकारण भाव मानते हैं। जैन योग्यता को ज्ञान का कारण मानते हैं। प्रमाण के अभाव में सांख्य के प्रभव को और जैन योग्यता लक्षण को कैसे व्यभिचरित किया जावेगा। ___ अथवा संवित्ति ही खण्डशः प्रतिभासित होती हुई वेद्यवेदक आदि व्यवहार के लिये कल्पित की जाती है । इस प्रकार का अभिप्राय भी कैसे कर सकेंगे जिससे कि प्रमाण का अन्वेषण न किया जावे । अर्थात् उपर्युक्त सभी में दूषण के लिये भी प्रमाण की खोज करनी ही पड़ेगी। दूसरी बात यह है कि इस विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध के यहाँ ज्ञान में क्षणिकत्व, अनन्यत्ववेद्यत्व और नानासंतानत्व यह सब स्वतः सिद्ध नहीं हो सकते हैं, भ्रांत होने से स्वप्न के समान । अर्थात् विज्ञानाद्वैतवादी के यहां स्वकीयज्ञान से सभी ज्ञानों में क्षणिकादिपना सिद्ध नहीं होता है एवं पर ग्राहक को ग्राह्य ग्राहक भाव घटन पूर्वक भ्रान्तरूप स्वीकार किया गया है। ज्ञानाद्वैतवादी-स्वसंवेदन से वे सब स्वतः सिद्ध हैं। जैन-ऐसा नहीं कहना क्योंकि क्षाणिक रूप से अनन्यवेद्य रूप से और नानासंतान रूप से स्वसंवेदन का अभाव है । जैसे कि नित्य रूप से, सर्ववेद्य रूप से और एकत्व रूप से परम ब्रह्म की सिद्धि नहीं होती है। उसी प्रकार से ज्ञान के स्वरूप संवेदन में भी व्यवसाय रहित होने से प्रमाणाांतर की अपेक्षा होने से अनुपलम्भ के समान ही है। अर्थात् आप बौद्धों ने ज्ञान को निर्विकल्प माना है अतएव वह अपने स्वरूप का अनुभव करने में विकल्पज्ञान की अपेक्षा रखेगा तब तो उसका स्वयं 1 प्रमाणाभावे । ब्या० प्र०। 2 अथवा अग्नेः कार्यस्यारणिकाष्ठं कारणमित्यादि कार्यकारणत्वसंशं प्रभवं काश्चन कार्यकारणवादिनः प्रति अन्यस्मात्सूर्यकान्तादेः अग्निकारणलक्षणतया कृत्वा प्रमाणाभावेऽन्तस्तत्त्ववादी कथं व्यभिचारये त्त । दि० प्र०। 3 चक्षषा। दि० प्र० । 4 प्रमाणाभावेऽन्तस्तत्त्ववादीतीहापि संबन्ध्यः। दि० प्र०। 5 कल्पते । इति पा० । अर्था भवन्ति । दि०प्र० । 6 ज्ञानानाम् । दि० प्र० । 7 निर्विकल्पकत्वात्संविदाम् । दि० प्र०। 8 स्वप्रकाशक रूपत्वम् । दि०प्र० । 9 परमब्रह्मणः। इति पा० । दि० प्र०। 10 विज्ञानावदिनोभिप्रायमन दूषयति । तव मते प्रमाणान्तरापेक्षा सर्वथानास्त्येव । ब्या०प्र०। 11 अनुपलम्भकत्वं व्यवस्थापयति । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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