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________________ ( ४४ ) को संदेह हो गया। अतः गुप्त रूप से उसने इस रहस्य का पता लगा लिया। तब समंतभद्र से उन्होंने शिवजी को नमस्कार के लिये प्रेरित किया । समंतभद्र ने इसे उपसर्ग समझकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति प्रारम्भ की। जब वे चन्द्रप्रभ की स्तुति कर रहे थे कि शिव की पिंडी से भगवान् चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट हो गई। समंतभद्र के इस महात्म्य को देखकर शिवकोष्टि राजा अपने भाई शिवायन सहित उनके शिष्य बन गये। यह कथानक "राजाबलिकथे" में उपलब्ध है। श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में लिखा हैवंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवता-दत्तोदात्तपदस्वमंत्रवचनव्याहूतचन्द्रप्रमः । आचार्यस्स समंतभद्र गणभृद्येनेह काले कलौ। जैन वम समंतभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ अर्थात् जो अपने भस्मक रोग को भस्मसात् करने में चतुर हैं, पद्मावती नामक देवी को दिव्य शक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति होने से मंत्रवचनों द्वारा जिन्होंने चन्द्रप्रभ को प्रकट किया है और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग इस कलिकाल में सब ओर से भदरूप हआ, वे गणनायक आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी बार-बार हम सभी के द्वारा वंद्य हैं। आराधना कथाकोष में मूर्ति प्रकट होने के अनंतर ऐसा प्रकरण आया है कि चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट होने के इस चमत्कार को देखकर उनकी स्तोत्र रचना पूरी होने के बाद राजा शिवकोटि ने उनसे उनका परिचय पूछा । तब समंतभद्र ने उत्तर देते हुए कहा ___ "मैं कांची में नग्न दिगम्बर यति के रूप में रहा, शरीर में रोग होने पर पुण्ड नगरी में बौद्ध भिक्षु बनकर मैंने निवास किया। पश्चात् दशपुर नगर में मिष्ठान्न भोजी परिव्राजक बनकर रहा । अनंतर वाराणसी में आकर शिव तपस्वी बना । हे राजन! मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हैं। यहां जिसकी शक्ति वाद करने की हो वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे।" पुनश्च पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताड़िता। पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकट, बादार्थी विचराम्यहं नरपते । शार्दूलविक्रीडितम् ॥ मैंने पहले पटना नगर में वाद की भेरी बजाई, पुनः मालवा सिन्धु-देश ढक्क ढाका (बंगाल), कांचीपुर और वैदिश-विदिशा-भेलसा के आसपास के प्रदेशों में भेरी बजाई। अब बड़े-बड़े वीरों से युक्त इस करहाटक नगर को प्राप्त हुआ हूं । इस प्रकार हे राजन ! मैं वाद करने के लिये सिंह के समान इतस्ततः क्रीड़ा करता हुआ विचरण कर रहा हूँ। राजा शिवकोटि समंतभद्र के इस आख्यान को सुनकर भोगों से विरक्त हो दीक्षित हो गये। ऐसा वर्णन है। १. जैन शिखालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५४, पृ० १०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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