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________________ श्री शुभचन्द्र आचार्य, श्री वर्द्धमान सूरि, श्री जिनसेनाचार्य और श्रीवादीभसूरि मादि ने अपने-अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव, वरांगचरित, अलंकार चिन्तामणि और गद्यचिन्तामणि आदि में श्री समंतभद्र स्वामी की सुन्दर-सुन्दर श्लोकों में स्तुति की है। ये जैन धर्म और जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ तर्क व्याकरण, छन्द अलंकार एवं काव्य, कोष आदि विषयों में पूर्णतया अधिकार रखते थे। सोही इनके ग्रन्थों से स्पष्ट झलक जाता है। इन्होंने जैन विद्या के क्षेत्र में एक नया आलोक विकीर्ण किया है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में तो इन्हें जिनशासन के प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है। इनका जीवन परिचय, मुनिपद, गुरु-शिष्य परमरा, समय और इनके रचित ग्रन्थ इन पांच बातों पर यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा। जीवन परिचय इनका जन्म दक्षिण भारत में हआ था। चोल राजवंश का राजकुमार अनुमित किया जाता है। इनके पिता उरगपुर (उरपुर) के क्षत्रिय राजा थे । यह स्थान कावेरी नदी के तट पर फणिमंडल के अन्तर्गत अत्यन्त समृद्धशाली माना गया है । श्रवणबेलागोला के दोरवली जिनदास शास्त्री के भंडार में पाई जाने वाली आप्तमीमांसा की प्रति के अन्त में लिखा है-"इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधियसूनोः श्रीस्वामीसमंतभद्रमुनेः कृतो आप्तमीमांसायाम्"-इस प्रशस्तिवाक्य से स्पष्ट है कि समंतभद्र स्वामी का जन्म क्षत्रियवंश में हआ था और उनका जन्मस्थान उरगपुर है । ___ इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है। "स्तुतिविद्या अपरनाम" "जिनस्तुतिशतक" में पद्य ११६वे में कवि और काव्य का नाम चित्रबद्ध रूप में अंकित है। इस काव्य के छह आरे और नव वाली चित्ररचना पर से "शांतिवर्मकृतम्" और "जिनस्तुतिशतम्" ये दो पद निकलते हैं । सम्भव है यह नाम माता पिता के द्वारा रखा गया हो और "समंतभद्र" मुनि अवस्था का हो । मुनिदीक्षा और भस्मकव्याधि मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब वे मणुवक हल्ली स्थान में विचरण कर रहे थे कि उन्हें भस्मक व्याधि नामक भयानक रोग हो गया, जिससे दिगम्बर मुनिचर्या का निर्वाह उन्हें अशक्य प्रतीत हुमा । तब उन्होंने गुरु से समाधिमरण धारण करने की इच्छा व्यक्त की । गुरु ने भावी होनहार शिष्य को आदेश देते हुए कहा "आपसे धर्म प्रभावना की बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं अतः आप दीक्षा छोड़ कर रोग शमन का उपाय करें। रोग दूर होने पर पुनः मुनिदीक्षा ग्रहण करके स्वपर कल्याण करें।" गुरु की आज्ञानुसार समंतभद्र रोगोपचार हेतु जिनमुद्रा छोड़कर संन्यासी बन गये और इधर-उधर विचरण करने लगे। एक समय वाराणसी में शिवकोटि राजा के शिवालय में जाकर राजा को आशीर्वाद दिया और शिवजी को ही मैं खिला सकता हूं।" ऐसी घोषणा की। राजा की अनुमति प्राप्त कर समंतभद्र शिवालय के किवाड़ बन्द कर उस नैवेद्य को स्वयं ही भक्षण कर रोग को शान्त करने लगे। शन: शन: उनकी व्याधि का उपशम होने लगा अत: भोग को सामग्री बचने लगी, तब राजा १. महापुराण, भाग १, ४४-४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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