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________________ इन महान् आचार्य के द्वारा रचा हुआ एक श्रावकचार भी है जो कि "उमास्वामी श्रावकाचार" नाम से प्रकाशित हो चुका है । यह बात उसी श्रावकाचार के निम्न पद्यों से स्पष्ट है । यथासूत्रे तु सप्तमेऽप्युक्ताः पृथग्नोक्तास्तदर्थतः । अवशिष्टः समाचार: सोऽत्रैव कथितो ध्रुवम् ॥४६४।। ___ अर्थात्- इस श्रावकाचार में श्रावकों की षट्आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करते हुए उनके अणुव्रत आदिकों का भी वर्णन किया है । पुनः यह संकेत दिया है कि मैंने "तत्त्वार्थसूत्र" के सप्तम अध्याय में श्रावक के १२ व्रतों का और उनके अतीचारों का विस्त र से कथन किया है, अतः यहां उनका कथन नहीं किया है। बाकी जो आवश्यक क्रियाएँ "देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान का वर्णन वहाँ नहीं किया है, उन्हीं को यहाँ पर कहा गया है। पुनरपि अन्तिम श्लोक में कहते हैं किइतिवृत्तंमयेष्टं संश्रये षष्ठमकेऽखिलम् । चान्यन्मया कृते ग्रन्थेऽन्यस्मिन् दृष्टव्यमेव च ॥४७६॥ इस प्रकार से मैंने इस श्रावकाचार की छठी अध्याय में श्रावक के लिये इष्ट चारित्र का वर्णन किया है। अन्य जो कुछ और भी श्रावकाचार है, वह सब मेरे द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ (तत्वार्थसूत्र) से देख लेना चाहिये । इस प्रकार के उद्धरणों से यह निश्चित हो जाता है कि यह श्रावकाचार भी पूज्य उमास्वामी आचार्य की ही रचना है। ऐसे श्री उमास्वामी आचार्यदेव ही अष्टसहस्री के ग्रन्थ के लिये मूल आधार हैं । उनको मेरा शत्-शत् वंदन । श्री समंतभद्र स्वामी जिस प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य संस्कृत के प्रथम सूत्रकार हैं, उसी प्रकार जैनवाङमय में स्वामी श्री समंतभद्र प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ-साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर चिन्तक भी हैं। स्तोत्रकाव्य का सूत्रपात आचार्य समंतभद्र से ही होता है। इनकी स्तुति रूप दार्शनिक रचनाओं पर अकलंक और विद्यानन्द जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवतियां लिखकर मौलिक ग्रन्थ रचयिता का यश प्राप्त किया है । वीतरागी तीर्थंकर की स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभा का द्योतक है। आदिपुराण में आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों के विधाता कहते हैं और उन्हें गमक आदि चार विशेषणों से विशिष्ट बतलाते हैं । यथा ममः समंतभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचोवज्रपातेन निभिन्ना कुमताद्रयः॥ कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते ॥ स्वतंत्र कविता करने वाले “कवि" कहलाते हैं, शिष्यों को मर्म तक पहुंचा देने वाले “गमक", शास्त्रार्थ करने वाले "वादी" और मनोहर व्याख्यान देने वाले "वाग्मी" कहलाते हैं । १. महापुराण भाग १, १ (४४-४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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