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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ३६६ प्रसङ्गात् । एवमपौरुषेयस्य वचनस्य पौरुषेयस्य च गुणवद्वक्तृकस्य 'कारणदोषाभावान्निर्दोषत्वं समानमतिशयासंभवात् । तत्र यदेव युक्तियुक्तं तदेव प्रतिपत्तुं प्रतिपादयितुं वा शक्यं कथंचित्पौरुषेयत्वं, न तु सर्वथापौरुषेयत्वं, 'तस्य युक्तियुक्तत्वाभावात् तद्युक्तीनां 'तदाभासत्वसमर्थनात् । तत्रापौरुषेयत्वेपि वा वेदे यदेव युक्तियुक्तं तदेव प्रतिपत्तुं प्रतिपादयितुं वा शक्यं वचनमग्निहिमस्य भेषजं द्वादश मासाः संवत्सर इत्यादिवत् । 'नाग्निहोत्रादिवाक्यसाधनं,' तस्य युक्तियुक्तत्वविरोधात् । सिद्ध पुनराप्तवचनत्वे यथा हेतुवादस्तथाज्ञावादोपि प्रमाणं, तदाप्तवचनत्वाविरोधात् । ननु 11चापौरुषेयत्ववदाप्तशासनमप्यशक्यव्यवस्थं, तस्यैव ज्ञातुमशक्तेः, सरागस्यापि वीतरागवच्चेष्टोपलम्भादयमाप्त इति प्रतिपत्त्युपायासत्त्वात् मीमांसक-अपौरुषेय आगम के समान आप्त के शासन की व्यवस्था करना भी शक्य नहीं है। क्योंकि उस आप्त को ही जानना अशक्य है। सराग भी वीतराग के समान चेष्टा करते हुये उपलब्ध होते हैं अतः "यह आप्त है" इस प्रकार के ज्ञान के उपाय का ही अभाव है इसलिये उस आप्त के शासन की व्यवस्था करना ही अशक्य है। जैन-इस विषय में तो हमने पहले ही कह दिया है कि सर्वथा एकांतवादों का स्याद्वाद के द्वारा खण्डन कर दिया जाता है । युक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचन वाले होने से ये "आप्त निर्दोष हैं" ऐसा निर्णय करना शक्य है और ये दोषवान हैं क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध वचन वाले हैं ऐसा भी निर्णय करना शक्य है । इनमें वचन विशेष जिनके निश्चय नहीं है ऐसे किसी व्यक्ति में वीतराग और सराग संदेह होने पर भी जिनके वचन विशेष निश्चित हैं उन्हें आप्त व्यवस्थापित करना शक्य है। उन आप्त विशेष में जो आप्तपना है वह पदार्थ को साक्षात्कार करने आदि गुणों की अपेक्षा से ही है । __इस प्रकार से आप्त-सर्वज्ञ को "सूक्ष्मांतरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा:" इत्यादि कारिका के द्वारा सिद्ध कर दिया है । अथवा सम्प्रदाय का विच्छेद न होना भी आप्ति (सर्वज्ञपना) है। सर्वज्ञ से आगम की सिद्धि होती है और उस आगम के अर्थ का अनुष्ठान करने से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। इस प्रकार से सुनिश्चित असंभवबाधक प्रमाण से प्रवचन के अर्थ का संप्रदाय अविच्छेद रूप सिद्ध 1 उभयत्र निर्दोषत्वाविशेषात् । ब्या०प्र०। 2 ततो। इति पा० । दि० प्र०। 3 अपौरुषेयपौरुषेयवचनयोर्मध्ये । दि० प्र०। 4 सर्वदाअपौरुषेयत्वस्य । दि० प्र०। 5 युक्तियुक्तत्व । पूर्व । दि० प्र०। 6धर्मसाधकं सत् पूर्वोक्तप्रकारेण । ब्या०प्र०17 अग्निहोत्रादिवाक्यस्य । ब्या० प्र०। 8 ततश्च । ब्या०प्र०। 9 अनुमान । ब्या० प्र० । 10 आगमः। उपदेशवादागमः । दि० प्र०। 11 आगम । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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