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________________ ३६८ ] अष्टसहस्री [ षष्ठ प० कारिका ७८ यथैव हि चक्षुर्ज्ञानस्य ज्ञातृगुणं सम्यग्दर्शनादिकमपेक्ष्याविसंवादकत्वं, तद्दोषं मिथ्यादर्शनादिकमपेक्ष्य विसंवादकत्वं चोपपद्यते तथा वक्तुर्गुणं यथार्थज्ञानादि दोषं च मिश्याज्ञानादिकमपेक्ष्य संवादकत्वं विसंवादकत्वं चेति निश्चितं महाशास्त्रे । ततोऽनाप्तवचनान्नार्थज्ञानमन्धरूपदर्शनवत् । न हि जात्यन्धो रूपं दर्शयितुमीशः परस्मै । तथानाप्तोपि नार्थं 4ज्ञापयितुमतिनिःशंक है क्योंकि हमारे यहां तीन प्रकार के दूरवर्ती पदार्थों के भी निर्णय का उपाय प्रतिपादित किया गया है। अतएव "वचन का अविसंवादकपना वक्ता के गुणों की अपेक्षा रखता है जैसे चक्षुइ द्रिय का ज्ञान और वचनों का विसंवाद उस वक्ता के दोषों का अनुसरण करता है। जिस प्रकार से चक्षु इन्द्रिय का ज्ञान ज्ञाता के सम्यग्दर्शन आदि गुणों की अपेक्षा रखकर ही अविसंवादक है और ज्ञाता के मिथ्यादर्शनादि दोषों की अपेक्षा करके विसंवादक होता है । तथैव वक्ता के यथार्थ ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा करके अविसंवादकपना और मिथ्यादर्शनादि दोषों की अपेक्षा करके विसंवादकपना देखा जाता है इस प्रकार से महाशास्त्र श्री तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की श्लोकवार्तिक टीका में मैंने (श्री विद्यानंद स्वामी ने) निर्णय किया है। ___ इस प्रकार से वक्ता के गुणों की अपेक्षा से ही संवादकता के निश्चित हो जाने से अनाप्त के वचनों से अर्थज्ञान नहीं हो सकता है जैसे कि अंधा मनुष्य रूप का दर्शन नहीं करा सकता है। अर्थात् जैसे जात्यंध कोई मनुष्य दूसरे को रूप दिखाने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार से अनाप्त भी अर्थ को प्रकाशित करने के लिये-बतलाने के लिये समर्थ नहीं है, अन्यथा अति प्रसंग दोष आ जावेगा । अर्थात् पागल पुरुष भी पदार्थों को बतलाने लगेगा। इस प्रकार से अपौरुषेय वचन और गणवान वक्ता के द्वारा कहे गये पौरुषेय वचन इन में कारण दोष का अभाव होने से निर्दोषपना दोनों जगह समान है क्योंकि अपौरुषेय और पौरुषेय दोनों प्रकार के वचनों में किसी भी प्रकार का अभेद अस । उन दोनों हो वचनों में जो वचन युक्ति-नय प्रमाण से युक्त हैं वे ही वचन समझने अथवा समझाने के लिये शक्य हैं। वे कथंचित् पौरुषेय ही हैं किन्तु सर्वथा अपौरुषेय वचन ऐसे नहीं हैं क्योंकि वे युक्ति-युक्त नहीं हैं कारण उनकी युक्तियाँ युक्ताभ्यास रूप से समर्थन की गई हैं। ___अथवा उन अपौरुषेय वेद में भी जो वचन युक्ति-युक्त हैं वे ही वचन समझने या समझाने के लिये शक्य हैं जैसे कि अग्नि हिम की औषधि है" बारह महीने का संवत्सर होता है इत्यादि वचन युक्ति-युक्त होने से ठीक ही हैं किन्तु अग्निहोत्रादि के वाक्य समझने या समझाने लिये शक्य नहीं हैं क्योंकि वे नय प्रमाण की युक्ति से विरुद्ध हैं। इस प्रकार से आप्त वचन के सिद्ध हो जाने पर जैसे हेतुवाद प्रमाण है वैसे ही आज्ञावाद भी प्रमाण है क्योंकि उन दोनों में आप्त वचन, अविरोध रूप से पाया जाता है। 1 पुरुष । ब्या० प्र० । - अविसंवादकत्वम् । इति पा० । ब्या० प्र०। 3 का। ब्या० प्र०। 4 यदानाप्तोऽर्थ ज्ञापयितु समर्थस्तदेति लक्षणोतिप्रसंगो जायते । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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