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________________ ३७० ] अष्टसहस्री [ ५० प० कारिका ७८ त्तस्य' शासनमिति व्यवस्थापयितुमशक्तरित्यपरे । उक्तमत्र' सर्वथकान्तवादानां स्याद्वादप्रतिहतत्वादिति । युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वाद्विनिर्दोषोयमिति शक्यं निर्णतुं, दोषवानयमिति च, दृष्टेष्टविरोधवचनत्वात् । तत्रानिश्चितवचनविशेषस्य कस्यचिद्वीतरागत्वेतराभ्यां संदेहेपि निश्चितवचनविशेषस्य शक्यमाप्तत्वं व्यवस्थापयितुम् । तत्राप्तिः साक्षात्करणादिगुणः' 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा' इत्यादिना साधितः । 'संप्रदायाविच्छेदो वा । सर्वज्ञादागमस्तदर्थानुष्ठानात् सर्वज्ञ इति सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वात्सिद्धः प्रवचनार्थस्य, अन्यथान्धपरम्परया प्रतिपत्तेः। न ह्यन्धेनाकृष्यमाणोन्धः स्वेष्टं मार्गमास्कन्दति नाम । न चैवं संप्रदायाविच्छेदे परस्पराश्रयणं, कारकपक्षे बीजांकुरादिवदनादित्वात्तस्यानवतारात् । ज्ञापकपक्षेपि परस्मात् स्वतःसिद्धात्, पूर्वस्य ज्ञप्तेर्नेतरेतराश्रयणं, प्रसिद्धेनाप्रसिद्धस्य साधनात् । अन्यथा-यदि आप्तपना, साक्षात्करण आदि गुणों से या संप्रदाय के अविच्छेद से सुनिश्चित असंवभद्बाधक प्रमाण से सिद्ध न होवे तब तो अंधपरंपरा से ही उसका ज्ञान मानना पड़ेगा। अंधे के द्वारा आकृष्यमाण अंध पुरुष अपने इष्ट मार्ग को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। सर्वज्ञ से आगम तथा आगम के अर्थ के अनुष्ठान से सर्वज्ञ की सिद्धि होने से संप्रदाय (आगम) का अविच्छेद होता है अतः इसमें परस्पराश्रय दोष आता है ऐसा भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि कारक पक्ष में बीजांकुर आदि के समान ये दोनों सर्वज्ञ और आगम अनादि हैं अत: परस्पराश्रय दोष का प्रसंग नहीं आता है । ज्ञापक पक्ष में भी पर से-कार्यभूत आगम के स्वतः सिद्ध होने से पूर्व-आगम कारण सर्वज्ञ की ज्ञप्ति होने से परस्पराश्रय दोष नहीं आता है क्योंकि प्रसिद्ध आगम से अप्रसिद्ध सर्वज्ञ की सिद्धि की जाती है। भावार्थ-ज्ञप्ति पक्ष में विचार करते हैं। कोई मनुष्य स्नानपानादि के लिये परिचित जलाशय में पहुंकर जलादिग्रहण कर लेते हैं । कोई मनुष्य अपरिचित दशा में पर–जलज्ञान से पहले पथिक का उपदेश, घट सहित पनिहारियों का देखना, मेंढक की आवाज आदि से जलज्ञान करके लाभ ले लेते हैं । अतएव सभी वस्तुयें कथंचित् हेतु से सिद्ध हैं क्योंकि इन्द्रिय और आप्त वचन की अपेक्षा 1 आप्तस्य । दि० प्र० । 2 समाधानं । ब्या० प्र० । 3 अस्मिन् चोधे । व्या० प्र० । 4 अनेकान्त । भा। दि० प्र० । 5 निराकृतत्वात् । ब्या० प्र०। 6 उभयोमा॑तु शक्यत्वे । दि० प्र० । 7 यसः । दि० प्र०18 अनुमानेन । दि० प्र० । सम्प्रदायविच्छेदाप्तिनं यदि । साधितम् । दि० प्र०। 10 आगम । दि० प्र०। 11 आयाति । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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