SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ३६५ स्यात् । वेदविशेषणस्याध्ययनवाच्यत्वस्यान्यत्राभावान्नानकान्तिकतेति चेतहि पिटकत्रयादिविशेषणस्य वेदादावसंभवादव्यभिचारिता कथं न भवेत् ? तथा च वेदवदवेदस्याप्यपौरुषेयत्वं प्रामाण्यनिबन्धनं याज्ञिकानां प्रवर्तक 'स्यान्न वा वेदेपि, विशेषाभावात् । [ वेदे दुर्भणनत्वादिअतिशयो वर्तते अत: उभयत्र समानता नास्तीति कथने आचार्याः उत्तरयंति ] दुर्भणनदुःश्रवणादीनामस्मदाद्युपलभ्यानां तदतिशयान्तराणां च शक्यक्रियत्वादितरत्रापि, परोक्षाया मन्त्रशक्तेरपि दर्शनात् । न ह्याथर्वणानामेव मन्त्राणां शक्तिरुपलभ्यते, न पुनः सौगतादिमन्त्राणामिति शक्यं वक्तुं, 'प्रमाणबाधनात् । हैं कि ऐसे बुद्ध के बनाये गये पिटकत्रय में भी कहा जा सकता है कि 'पिटकत्रय का अध्ययन भी परंपरा से गुरु के अध्ययनपूर्वक ही है क्योंकि वह पिटक त्रय के अध्ययन का वाच्य है वर्तमान के अध्ययन के समान'। ऐसा पिटकत्रयों के विषय में कहते हये किसी का मुख वक्र तो नहीं होता है। अर्थात बद्ध के शास्त्रों के विषय में गुरु अध्ययनपूर्वक कल्पना करने में किसी का मुख टेढ़ा तो नहीं होता है। उसके विषय में भी ऐसा ही कहने से क्या बाधा आती है ? मीमांसक-'वेदाध्ययन वाच्यत्वात्' हेतु में अध्ययन वाच्यत्व के साथ 'वेद' शब्द को विशेषण में लिया है वह अन्यत्र असंभव है अतएव हमारा हेतु अनैकांतिक नहीं है। जैन-तब तो पिटकत्रयादि विशेषण वाला अध्ययन वाच्यत्व हेतु वेदादि में भी असंभव है इसलिये वहां भी अव्यभिचारीपना क्यों नहीं होगा? पुनः उस प्रकार से वेद के समान अवेद-पिटकत्रय भी आप याज्ञिकों के यहां अपौरुषेय सिद्ध होकर प्रमाणता के कारण हो जावेंगे और पिटकत्रय ही आपके लिये ज्ञान, चैत्य और वंदन रूप अनुष्ठान में प्रवर्तक हो जावेंगे अथवा वेद भी प्रामाणिक और क्रियानुष्ठान में प्रवर्तक नहीं हो सकेंगे क्योंकि दोनों में कुछ भी अंतर नहीं है। [ दुर्भणनत्वादिलक्षण अतिशय वेदों में विद्यमान है अतएव दोनों में समानता नहीं है, ऐसा कहने पर आचार्य उत्तर देते हैं। ] मीमांसक-हम लोगों को उपलभ्य दुर्भणन, दुःश्रवण आदि की और उनके अतिशयान्तरों की क्रिया शक्य है। जैन-पिटकत्रयादि में भी ये क्रियायें शक्य हैं। इन ग्रंथों में परोक्षभूत मंत्र शक्ति भी देखी जाती है । अथर्णव वेद के मंत्रों की ही शक्ति उपलब्ध हो किन्तु सौगत आदि के यहाँ मंत्रों की शक्ति नहीं हो ऐसा भी कहना शक्य नहीं है क्योंकि प्रमाण से बाधा आती है। 1 तत्रापौरुषेयत्वं नो चेत् । ब्या० प्र०। 2 बेद । ब्या० प्र०। 3 पिटकत्रयेपि । व्या० प्र०। 4 प्रत्यक्ष । ब्या० प्र.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy