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________________ अष्टसहस्री [ षष्ठ प० कारिका ७८ [ मंत्राणामुत्त्यत्तिजनेन्द्रवचनादेव न चान्यस्मात् ] __वैदिका एव मन्त्राः परत्रोपयुक्ताः' शक्तिमन्त इत्यप्ययुक्तं, प्रावचनिका' एव वेदेपि प्रयुक्ता इत्युपपत्तेस्तत्र' भूयसामुपलम्भात् समुद्राधाकरेषु रत्नवत् । न हि कियन्त्यपि रत्नानि राजकुलादावुपलभ्यमानानि तत्रत्यान्येव, तेषां रत्नाकरादिभ्य एवानयनात् तद्भवत्वसिद्ध यसां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । तद्वत्प्रवचनैकदेशविद्यानुवादादेव सकलमन्त्राणां समुद्भ तिविस्तीर्णात्, न पुनर्वेदात्तल्लवमात्रादिति युक्तमुत्पश्यामः । वेदस्यानादित्वादपौरुषेयत्वाच्च तन्मन्त्राणामेवाविसंवादकत्वं संवभवतीति चायुक्तं, तदप्रसिद्धेः । सिद्धेपि तदनादित्वे पौरुषेयत्ज्ञाभावे व कथमविसंवादकत्वं प्रत्येतव्यम् ? 'म्लेच्छव्यवहारादेस्तादृशो बहुलमुपलम्भात् [ मंत्रों की उत्पत्ति जिनेन्द्र भगवान के वचनों से हो होती है अन्य वचनों से नहीं।] मोमांसक-वैदिक मंत्र ही अन्यत्र प्रयोग में लाने पर शक्तिमान देखे जाते हैं। जैन-यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि वे मंत्र प्रावनिक-जिनागम में ही कहे गये हैं और वे ही वेद में भी प्रयुक्त हैं यह बात व्यवस्थित है क्योंकि हमारे यहां जिन प्रवचन में बहुत रूप से वे मंत्र उपलब्ध हो रहे हैं जैसे कि समुद्रादि खानों में ही रत्नों की उपलब्धि होती है। कितने ही रत्न राजकुल आदि में उपलब्ध होते हैं वे वहीं के नहीं हैं किन्तु वे रत्नाकर अर्थात् समुद्र आदि से ही लाये जाते हैं समुद्रादि में ही उनकी उत्पत्ति सिद्ध है, बहुलता से ही वहां पर उनकी उत्पत्ति देखी जाती है । उसी प्रकार से जिन प्रवचन के एक देश-अंशरूप विद्यानुवाद नामक दशवें पूर्व से ही संपूर्ण मंत्रों की उत्पत्ति होती है किन्तु उसके लव मात्र वेद से उन मंत्रों की उत्पत्ति नहीं है । इस प्रकार से ही हम युक्ति युक्त समझते हैं। मीमांसक-वेद अनादि हैं और अपौरुषेय हैं अतः उन वेदों के मंत्र ही अविसंवादक रूप हो सकते हैं। जैन-यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि वे वेद अनादि एवं अपौरुषेय हैं यह बात ही असिद्ध है। अथवा उन वेदों को अनादि और अपौरुषेय रूप सिद्ध मान लेने पर उनका अविसंवादकत्व कैसे जाना जावेगा ? क्योंकि म्लेच्छ व्यवहारादि भी बहुलता से उस प्रकार के देखे जाते हैं। अर्थात् द्वीपांतर निवासी म्लेच्छों का व्यवहार मात विवाहादि लक्षण नास्तिकता आदि देखा जाता है एवं I पिटकत्रयादी। दि० प्र०। 2 स्या० सैद्धान्तिका एवं मन्त्रा वेदे निक्षिप्ता: सन्ति इति घटनात् । दि० प्र० । 3 स्याद्वाद्याह तत्र प्रवचने बहूनां मन्त्राणां दर्शनात् यथा समुद्राद्याकारेषु रत्नानां दर्शनमस्ति =राजकुलादो कतिचिदपिरत्नानि दृश्यमानानि यानि संति तानि राजकुलोद्भवान्येव न हि सन्ति । तेषां रत्नानारत्नाकरादिभ्य आनयनात् । तथा तत्र समुद्राद्याकरेष्वस्तित्वं सिद्धयति यतो भूयसां रत्नानां तत्र रत्नाकरादौ उत्पत्तिवीक्षणात् । दि० प्र० । 4 मन्त्राणाम् । ब्या० प्र०। 5 राजगृह । ब्या० प्र०। 6 वेदस्य । ब्या० प्र०। 7 अनादेरपौरुषेयस्य विसंवादिनः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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