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अष्टसहस्री
[ षष्ठ प० कारिका ७८ 'वक्तारमनुमन्यन्ते । सुदूरमपि गत्वा तदङ्गीकरणेतरमात्रे व्यवतिष्ठेत श्रुतिवादी, प्रमाणबलात्तदवक्तृकस्य साधयितुमशक्तेः । स्यान्मतं
5"यद्वेदाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा इति"
प्रमाणाद्वेदे वक्तुरभावो, न पुनरभ्युपगममात्रात् इति तदयुक्तं, "पिटकत्रयादावपि तत एव वक्रभावप्रसङ्गात् । वेदाध्ययनवदितरस्यापि 'सर्वदाध्ययनपूर्वाध्ययनत्वप्रक्लुप्तौ न वक्त्रं वक्रीभवति, यतो विद्यमानवक्तृकेपि भावादध्ययनवाच्यत्वस्यानकान्तिकत्वं न स्वीकृति और अस्वीकृति मात्र से व्यवस्थित होवेंगे। क्योंकि प्रमाण के बल से "वेद का कोई वक्ता नहीं है" यह बात सिद्ध करना शक्य नहीं है।
मीमांसक-इलोकार्थ- "जो कुछ भी वेद का अध्ययन है वह सभी गुरु के अध्ययनपूर्वक हो है । क्योंकि वह वेद का अध्ययन वाच्य रूप है जैसे कि वर्तमान का अध्ययन ।" इस प्रकार के प्रमाण से वेद के विषय में वक्ता का अभाव हम लोग सिद्ध करते हैं, किन्तु स्वीकृति मात्र से ही सिद्ध नहीं करते हैं।
जैन-आपका यह कथन अयुक्त है। इस प्रकार से तो पिटकत्रयादि के विषय में भी वक्ता का अभाव सिद्ध हो जावेगा।
वेदाध्ययन के समान इतर पिटकत्रय के अध्ययन भी सर्वदा अध्ययनपूर्वक ही हैं। इस प्रकार से अध्ययनपूर्वक अध्ययन की कल्पना करने पर तो किसी का मुख वक्र नहीं हो सकता है कि जिससे विद्यमान वक्ता वाले पिटकत्रय में भी हेतु का सद्भाव होने से आपका “अध्ययन वाच्यत्त्वात्" हेतु अनेकांतिक नहीं हो जावे अर्थात् आपका हेतु अनेकांतिक ही हो जाता है।
भावार्थ-मीमांसक कहता है कि वेद अपौरुषेय हैं इसलिये प्रमाण हैं 'सभी वेदों का अध्ययन गुरुओं की परंपरा से उस वेद के अध्ययनपूर्वक ही चलता रहता है क्योंकि वेद के अध्ययन का वाच्य है जैसे वर्तमान का वेदों का अध्ययन । इस प्रकार से मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते
1 ततश्च । ब्या० प्र० । 2 स्याद्वाद्याहातिदूरं गत्वा वेदवादी वेदे पिटकत्रयादौ च कर्तृ स्मरणाद्यभावसद्भावयोरंगीकारानंगीकारमात्रे सन्तिष्ठते कस्मात्प्रमाणवेदस्यावक्तृत्वं साधयितुं न शक्नोति यतः । दि० प्र०। 3 कर्तृत्वादि । पिटकत्रय दि० प्र० । 4 नत्वनुमानेन साधितम् । ब्या० प्र० । 5 अत्राह वेदवादी वेदाध्ययनं पक्षः सर्वदा वेदाध्ययनपूर्वकं भवतीति साध्यो धर्म: वेदाध्ययनवाच्यत्वात् । यद्वेदाध्ययनवाच्यं तत्सर्वदा तदध्ययनपूर्वकं यथा वेदस्याधुनाध्ययनं वेदाध्ययनवाच्यं चेदं तस्मात्तदध्ययन पूर्वकमेव। इत्यनुमानाद्वेदे वक्तुः पुरस्याभावोङ्गीकारमात्रादेव नेति स्याद्वाद्याह हे वेदवादिन् यदुक्तत्वया तदयुक्त कुत: पिट कत्रयादिशास्त्रेपि तस्मादेवानुमानाद्वक्तुरभाव: प्रसजति यतः । दि० प्र०। 6 स्याद्वाद्याह पिटकत्रयाध्ययनं पक्षः सर्वदा पिटकत्रयाध्ययनपूर्वकं भवतीति साध्यो धर्मः पिटकत्रयाध्ययनवाच्यत्वात् यत्पिटकनयाध्ययनं वाच्यं तत्पिटकायाध्ययनपूर्वकमेव । यथा वेदाध्ययनं पिटकत्रयाध्ययनवाच्यं चेदं तस्मात्तदध्ययनपूर्वकम् = एवमनुमानरचनाकरणे वक्तुर्वक्तुं वक्ती न भवत्येयं पिटकत्रयादी विद्यमानवक्तर्यपि सद्भावात् हे वेदवादिन् तव कृतहेतोरध्ययनवाच्यत्वादित्येतस्य व्यभिचारित्वं कुतो न स्यादपितु स्यात् । दि० प्र०। 7 पूर्वाध्ययन वाच्यत्वप्रकल्प्ती । इति० पा०। दि०प्र०। 8 ततश्च । ब्या० प्र०। 9 यदध्ययनवाच्यं तत्तदकर्तृकमिति व्याप्तेरभावात् । ब्या०प्र०।
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