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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
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३६३
यत्वोपगमादिति चेत् 'सोयमभ्युपगमानभ्युपगमाभ्यां क्वचित्पौरुषेयत्वमन्यद्वा व्यवस्थापयतीति सुव्यवस्थितं तत्त्वम् । एतेन कर्तृ स्मरणाभावादयः प्रत्युक्ताः । स हि श्रुतौ कर्तृस्मरणादिमत्त्वदृष्ट कर्तृ कसमानत्वाद्यभावमभ्युपगममात्राद्व्यस्थापयति तद्भावं चेतरत्रानभ्युपगमात् । न च तथा तत्त्वं व्यवतिष्ठते, वेदेतरयोरविशेषात् । 'इतरत्र बुद्धो वक्तेति चेत् तत्र 'कमलोद्भवादिरिति' कथं न समानम् ? यथैव हि पिटकत्रये बुद्धो वक्तेति सौगताः प्रतिपाद्यन्ते तथा श्वेदेपि ते अष्टकान् काणादाः, पौराणिकाः कमलोद्भवं, जैनाः कालासुरं
जैन–यदि आप ऐसा कहते हैं तब तो आप केवल निजी स्वीकृति और अस्वीकृति के द्वारा ही पिटकत्रय को पौरुषेय एवं वेदों को अपौरुषेय व्यवस्थापित करते हैं। शायद इसलिये ही उसका तत्व सुव्यवस्थित है । अर्थात् प्रमाण के बिना आप मीमांसक पौरुषेयत्व और अपौरुषेयत्व की व्यवस्था कर रहे हैं इसलिये तत्त्व को व्यवस्था सुस्थित नहीं है। अष्टशती भाष्य में जो "सुव्यवस्थितं तत्त्वं" वचन है वह उपहास वचन है ऐसा समझना । इसी कथन से "वेद अपौरुषेय हैं क्योंकि उनके स्मरण का अभाव है" इत्यादि हेतुओं के कथन का भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये क्योंकि आप मीमांसक श्रुति के विषय में कर्ता के स्मरणादि के अभाव को एवं देखे गये कर्ता के समान पुरुष आदि के अभाव को केवल स्वीकृति मात्र से ही व्यवस्थापित करते हैं और अन्यत्र पिटकत्रयादि ग्रंथों के विषय में कर्तादि भाव को स्वीकार करते हैं । अर्थात् कर्ता के स्मरण आदि के अभाव को स्वीकार न करके ही उसे पौरुषेय सिद्ध करते हैं । इस स्वीकृति, अस्वीकृति मात्र से ही आपका तत्त्व व्यवस्थित नहीं हो सकता है क्योंकि वेद और पिटकत्रय ये दोनों ही समान हैं।
मीमांसक-पिटकत्रय का कर्ता बुद्ध है अतएव वे अप्रमाण हैं।
जैन-यदि ऐसा कहो तब तो उन वेदों के भी तो कर्ता कमलोद्भव-ब्रह्मा आदि हैं फिर क्यों समानता नहीं होगी?
जिस प्रकार से सौगत पिटकत्रय का वक्ता बुद्ध को कहते हैं उसी प्रकार से काणादजन अष्टक ऋषि को वेद का कर्ता मानते हैं । पौराणिकजन ब्रह्मा को तथा हम जैन कालासुर को वेदों का वक्ता स्वीकार करते हैं । इसलिये आप श्रुतिवादी मीमांसक बहुत दूर भी जाकर उस वेद के वक्ता की
1 स्या० वदति सोयं वेदवाद्यङ्गीकारावेदे अपौरुषेयत्वमनङ्गोकारात् पिटकत्रयादी अपौरुषेयत्वं व्यवस्थापयतीति तन्मते तत्त्वं प्रमाणाभावाग्निश्चितम् । एतेनांगीकारानंगीकार मात्रेण वेदे कर्तृ स्मरणाभाव इत्यादिविकल्पानिराकृता। दि० प्र० । 2 स्या० वदति स हि वेदवादी वेदे विधातृस्मरणादिमत्वस्य प्रत्यक्षदृष्टकालिदासादिकवीश्वरसमानत्वस्य चाभावमंगीकारमात्रबलाद्व्यवस्थापयतीतरत्र पिटकत्रयादी तयोः कर्तृ स्मरणादिमत्वदृष्टकविसमानत्वयोः सद्भावं व्यवस्थापयति। अनंगीकारमात्रादेव न तु प्रमाणात् । = यथात्वेन वेदान्तवादिना प्रतिपाद्यते। तथात्वं न च भवति कस्मात् वेदपिटकत्रया
: पदवाक्यादिप्रबन्धधर्माद्यपदेशद्वारेणोभयोविशेषादर्शनात् । दि० प्र०। 3 वेदस्य । ब्या० प्र०। 4 पिट कत्रय । ब्या० प्र०। 5 वेदवाद्याह पिटकत्रये सुगतो वक्तास्तीति चेत् । दि० प्र०। 6 स्याद्वाद्याह । तत्र वेदे ब्रह्म श्वरकालासुरादिभिः कृत्वा कर्तृत्वेन कथं तुभ्यं न । अपितु तुभ्यमेव । दि० प्र०। 7 ब्रह्मादि । दि० प्र० । 8 कमलोद्भवादयो वक्तार इति तद्भक्ताः प्रतिपाद्यते । दि० प्र० ।
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