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३६. ]
अष्टसहस्री
[ षष्ठ प० कारिका ७८ ज्ञानस्य सर्वथाप्यसंभवात् । तद्धि प्रत्यक्षं 'वा श्रौतं वा स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षं तस्यासर्वज्ञत्वात् श्रुतिमात्रावलम्बितत्वाच्च । न हि तादृशोतीन्द्रियार्थज्ञानमस्ति दोषावरणक्षयातिशयाभावात् । न हि प्रतिनियतदोषावरणक्षयमात्रे सत्यपि धर्माधर्मादिसाक्षात्करणं युक्तं, तस्य तत्परिक्षयातिशयहेतुकत्वेन व्यवस्थापितत्वात् । नापि श्रौतं तदर्थपरिज्ञान श्रुत्यविसंवादात्पूर्वमसिद्धेः ।
[ मीमांसकः श्रुतिज्ञानात् परमार्थज्ञानं मन्यते किंतु जैनाचार्याः तन्निराकुर्वति। ।
श्रतेः परमार्थवित्त्वं ततः श्रुतेरविसंवादनमित्यन्योन्यसंश्रितम् । न ह्यप्रसिद्धसंवा. दायाः श्रुतेः 'परमार्थपरिज्ञानं जैमिन्यादेः संभवति, अतिप्रसङ्गात् । नापि परमार्थवित्त्वमन्तरेण
का परिज्ञान सर्वथा ही असंभव है । अच्छा ! हम आप से पूछते हैं कि वह श्रुत्यर्थ परिज्ञान प्रत्यक्ष रूप है या श्रति-आगम से हो हुआ है ! प्रत्यक्ष तो आप कह नहीं सकते क्योंकि आप जैमिनि आदि असर्वज्ञ हैं और श्रुतिमात्र का ही अवलंबन लेने वाले हैं।
असर्वज्ञ जैमिनि आदिकों को उस प्रकार के अतीन्द्रिय अर्थ को जानने वाला ज्ञान संभव नहीं हैक्योंकि उनमें रागादि दोष एवं ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म रूप आवरण के क्षय से उत्पन्न होने वाले अतिशय का अभाव है। प्रतिनियत दोष ओर आवरण के क्षय मात्र होने पर भी धर्माधर्मादि का साक्षातकार करना युक्त नहीं है क्योंकि वह धर्माधर्मादि का ज्ञान उन दोषावरण के परिपूर्णतया क्षय से होने वाले अतिशय हेतुक होने से व्यवस्थापित किया गया है। यदि आप दूसरा विकल्प लेवें कि श्रति से होने वाला श्रौतज्ञान अतोन्द्रिय पदार्थों को जानता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि श्रति के अविसवाद के पहले वह अथज्ञान आसद्ध हो है । यदि आप कहें कि
[मीमांसक श्रुति के द्वारा वास्तविक ज्ञान होना मानते हैं, जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं ।)
श्रुति से परमार्थज्ञान होता है अतएव उस श्रुति में अविसंवाद है यह कथन भी अन्योन्याश्रय दोष से दूषित है।
संवाद की प्रसिद्धि से रहित श्रुति-वेद से जैमिनी आदि को परमार्थज्ञान संभव नहीं है
1 श्रुत्यर्थपरिज्ञानं, श्रुतमात्रावलम्बिनः । दि० प्र.। 2 आगमरूपम् । ब्या० प्र०। 3 जैमिने ब्रह्मादेर्वा धर्माधर्माद्यर्थपरिज्ञानं श्रुताभ्यासजनितमपि नास्ति कस्मात्वेदसत्यात् पूर्वं तदर्थपरिज्ञानं न सिद्धयति यत: कोर्थः श्रुतेरेवासत्या तदर्थपरिज्ञानं कथं सत्यम् । दि० प्र०। 4 जैमिन्यादेः । दि० प्र०। 5 तदर्थपरिज्ञानस्य । तहि श्रुत्यविसंवादा. सदर्थपरिज्ञानं भविष्यतीत्याशंकायामाह । व्या० प्र०। 6 जैमिनेः । ब्या० प्र०। 7 धर्मादि । दि० प्र० । 8 परमार्थविज्ञानत्वं विना तत्त्वप्रतिपादनस्वरूपमविसंवादनं न कुतः । अन्योन्याश्रयं न स्यात् । अपितु स्यात् । दि० प्र०।
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