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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
तत्त्वप्रतिपादनलक्षणमविसंवादनं यतोन्योन्याश्रयणं न स्यात् । ननु न श्रुतेरविसंवादात्प्रामाण्यम् । किं तहि ? स्वत एव । ततो न दोष इति चेत्, 'स्वतः श्रुतेन वै प्रामाण्यमचेतनत्वाद् घटवत् । सन्निकर्षादिभिरनैकान्तिकत्वमयुक्तं तत्प्रामाण्यानभ्युपगमान्मुख्यरूपतः । अथापि कथंचित् तत्प्रमाणत्वं स्यादविसंवादकत्वात् । सन्निकर्षादेरविसंवादकज्ञानकारणत्वेन' तथोपचारसिद्धरिति मन्येमहि । तथापि श्रुतेरयुक्तमेव, तदभावात् । तेनोपचारमात्रमपि' न स्यात्, तदर्थबुद्धिप्रामाण्यासिद्धः । न हि अतिरविसंवादिज्ञानस्य कारणं येनोपचारतः प्रमाणं स्यादिति निवेदितं प्राग्-भावनादिश्रुतिविषयाविसंवादकत्वनिराकृतिप्रस्तावे। आप्तवचनं
अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जावेगा अर्थात् अंगुलि के अग्रभाग पर सौ हाथी हैं इत्यादि वाक्यों से भी स्व-विषयज्ञान हो जावेगा।
परमार्थवेदी के बिना भी तत्त्व प्रतिपादन लक्षण अविसंवादन शक्य नहीं है कि जिससे अन्योन्याश्रय दोष न आवे अर्थात् आता ही है।
मीमांसक-श्रुति अविसंवाद रूप होने से प्रमाण है ऐसा नहीं है। जैन-तो कैसे है ? मीमांसक-वह स्वतः ही प्रमाण है । इसीलिये कोई दोष नहीं है ।
जैन-"श्रुति स्वतः प्रमाणिक नहीं है क्योंकि वह अचेतन है घटादि के समान" सन्निकर्षादि से भी व्यभिचार दोष देना अयुक्त है क्योंकि हम जैनियों ने तो उन सन्निकर्षादिकों को मुख्य रूप से प्रामाणिक माना ही नहीं है । कथंचित्-उपचार से वे प्रामाणिक हो सकते हैं, यदि वे सत्य रूपअविसंवादक हैं।
सन्निकर्षादि को अबिसंवादक ज्ञान का कारण होने से उपचार से ही हम लोग प्रमाण मान लेते हैं। उसी प्रकार यदि आप कहें कि श्रुति भी अविसंवाद ज्ञान का कारण होने से प्रमाण हो जावे सो ठीक नहीं है । उस प्रकार से भी श्रुति को अविसंवादक प्रमाण कहना अयुक्त ही है क्योंकि वह अविसंवादी ज्ञान का कारण भी नहीं है इसलिये उपचार मात्र से भी वह प्रमाण नहीं हो सकती है। श्रुति के अर्थज्ञान में प्रमाणता असिद्ध हो है।
श्रुति अविसंवादी ज्ञान का कारण भी नहीं है कि जिससे वह उपचार से भी सिद्ध हो सके
1 पुनः इति० पा० । दि० प्र०। 2 अविसंवादकत्व यदि तर्हि । दि० प्र०। 3 प्रामाण्यं युक्तं न भवतीति येन कारणेन । दि० प्र०। 4 श्रुतेः । दि० प्र०। 5 श्रुत्यर्थज्ञानम् । =एव । ब्या० प्र०। 6 स्याद्वाद्याह यदविसंवादिज्ञानस्य निमित्तमात्रकारणं तदेवोपचारतः प्रमाणं स्यात् । इति श्रुतेः पूर्व निबेदितं नहि । क्व । भावनानियोगविधीत्येतेषां वेदविषमाविसंवादकत्वनिराकरणावसरे । दि० प्र०।
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