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________________ अष्टसहस्री सम्प्रति युक्तीत रानेकान्तमुपदर्शयन्ति । ३५८ ] उत्थानिका 'वक्तर्यनाप्ते' 'यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । 'आप्ते वक्तरि 'तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितम् ॥७८॥ [ आप्तानाप्तयोलक्षणं । ] कः पुनराप्तोनाप्तश्च ? यस्मिन् सति वाक्यात्साधितं साध्यमर्थतत्त्वमागमात् साधितं स्याद्धेतोस्तु यत्साध्यं तद्धेतुसाधितमिति विभागः सिध्यतीति चेदुच्यते, — यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तस्ततोपनाप्तः । कः पुनरविसंवादो येनाविसंवादकः स्यात् ? तत्त्वप्रतिपादनमवि 3 5 1- अब युक्ति और आगम के अनेकांत को दिखलाते हैं - [ षष्ठ प० कारिका ७८ Jain Education International वक्ता आप्त नहीं होने से, हेतु से जो सिद्ध हुआ । युक्तसिद्ध वह तत्त्व सदा ही, हेतु साधित कहा गया || वक्ता आप्त यदी होवे तो, उनके वचनों से साधित । सभी तत्त्व निर्बाधरूप से, कहलाते आगम साधित ॥ ७८ ॥ कारिकार्थ- वक्ता के आप्त न होने पर जो हेतु से साध्य होता है वह हेतु साधित है और वक्ता जब आप्त होता है तब उसके वाक्य से जो सिद्ध होता है वह आगम साधित है ॥ ७८ ॥ [ आप्त और अनाप्त का लक्षण | शंका- आप्त कौन है, और अनाप्त कौन है । कि जिस आप्त के होने पर वाक्य से साधित साध्य, अर्थतत्त्व आगम से साधित होता है एवं जिस आप्त के न होने पर तो जो हेतु साध्य है वह हेतु साधित होता है । इस प्रकार का विभाग सिद्ध हो जाता है । समाधान- आपकी इस शंका का समाधान करते हैं कि जो जहां पर अविसंवादक है वही वहां पर आप्त है एवं इससे भिन्न अनाप्त है । शंका- अविसंवाद क्या चीज है कि जिससे वक्ता अविसंवादक आप्त हो सके ? समाधान-तत्त्वों का प्रतिपादन ही अविसंवाद है क्योंकि उसके अर्थ का ज्ञान देखा जाता है । वह अर्थज्ञान प्रस्फुट, अबाधित और निश्चय रूप है । साक्षात् अथवा असाक्षात् रूप से जाना 1 सूरयः । दि० प्र० । 2 इदानीं हेत्वहेत्वनेकान्तं प्रतिपादयन्ति सूरयः = उपदेष्टर्य सर्वज्ञे सत्यनुमानाद्यत् किञ्चित्साध्यं साधितं तद्धेतुसाधितमुच्यते । उपदेश के सर्वज्ञे सति तद्वचनात् । यत्किञ्चित्साध्यं साधितं तदागमसाधितमुच्यते == 3 अर्थाविसंवादिनि । दि० प्र० । एवं कथञ्चिद्धेतुसिद्धं कथञ्चिदहेतुसिद्ध वस्तुतत्त्वं ज्ञातव्यमिति । दि० प्र० । 4 का । दि० प्र० । 5 अनुमानात् । दि० प्र० । 6 अविसंवादार्थनिरूपके । दि० प्र० । 7 यदुपेयतत्त्वं तत् । दि० प्र० । 8 साध्येयत्तत् भवेत् । दि० प्र० । 9 यस्मिन्नाप्ते सति । दि० प्र० । 10 आप्तात् । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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