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________________ उभय और अवक्तव्य के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३५७ धर्मप्रतिपत्तिः संभवति, सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् । इति चिन्तितमन्यत्र । ततो 'नैतावप्येकान्तौ युक्तौ । "विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतं कान्तेयुक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥७७॥ 'युक्तीत रे कान्तद्वयाभ्युपगमोपि मा भूत्, 'विरुद्धयोरेकत्र 'सर्वथासंभवात्, स्याद्वादन्यायविद्विषांकथंचित्तदनभ्युपगमात् ' । ' तदवाच्यत्वेपि पूर्वदत् स्ववचनविरोधप्रसङ्गः । में परोपदेश के बिना, साध्याविनाभावी साधन धर्म का ज्ञान संभव नहीं है, अन्यथा वे अनुमानवेत्ता भी सर्वज्ञ ही हो जावेंगे । इस प्रकार से अन्यत्र - श्लोकवातिक ग्रंथ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है । इसलिये ये दोनों भी एकांत युक्त नहीं हैं । हेतु आगम दोनों का, एकात्म्य बने नहि परमत में । स्याद्वाद विद्वेषी जन के, दिखे विरोध परस्पर 11 यदि दोनों का "अवक्तव्य" है, यह एकांत लिया जावें । तब तो "अवक्तव्य" पर से भी, वयों वक्तव्य किया जावे ॥७७॥ कारिकार्थ - स्याद्वादन्याय के द्वेषी जनों के यहाँ हेतुवाद और आगमवादरूप उभयैकात्म्य भी नहीं बन सकता है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। तथा इन दोनों के अववतव्यैकांत को स्वीकार करने पर तो "अवाच्य" इस प्रकार का शब्द प्रयोग भी नहीं किया जा सकता है ॥७७॥ Jain Education International युक्ति हेतु और आगम इन दोनों को भी उभय एकांत से स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि दो विरुद्ध धर्मों का एकत्र रहना सर्वथा असंभव है । कारण कि स्याद्वादन्याय के विद्वेषीजन 'कथंचित्' रीति से उन दोनों को स्वीकार नहीं करते हैं । इन दोनों को अवाच्यैकांत रूप स्वीकार करने पर तो पूर्ववत् स्ववचन विरोध का प्रसंग आता है । 1 हेतुत एव सर्वं सिद्धं तथागमादेव सवं सिद्धमित्येकान्ती । दि० प्र० । 2 त भयैकात्म्यमस्त्वित्याह । दि० प्र० । 3 हेत्वागमयोः । दि० प्र० । 4 ऐकात्म्य | ब्या० प्र० । 5 उपेयतत्त्वे । ब्या० प्र० । 6 तहि हेत्वहेतूभयैकान्त्यं युक्त भवतु । इति कश्चिदुभयवादी = = स्या० कथञ्चिदनङ्गीकुर्वतां तदपि युक्त न कस्मात् युगपदेकत्र निषेधात् । दि० प्र० । 7 एकान्तवादिनाम् । व्या० प्र० । 8 युक्त्यागम । ब्या० प्र० । 9 ताकात्म्यमपि मास्त्ववाच्यमेवार्थतत्त्वमिति कश्चिदवाच्यवाद्याह = तं प्रति स्याद्वाद्याह तस्योभयस्य सर्वथावाच्यत्वे सत्यवाच्यं तत्त्वमिति वचनं न युज्यते । पूर्वं यथा तथा स्ववचनविरोधमायाति । दि० प्र० । 10 तत्त्वस्य । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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