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________________ हेतुवाद और आगमवाद के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३५३ तस्यापि धर्म्यादिगतिपूर्वकत्वादनुमानान्तरमपेक्षणीयमित्यनवस्था स्यात् । ततः कथंचित्साक्षात्करणमन्तरेण' धर्म्यादीनां न ' क्वचिदनुमानं ' प्रवर्तत । किं पुनः शास्त्रोपदेशात् ' ? इति प्रत्यक्षादपि सिद्धिरभ्यस्तविषयेभ्युपगन्तव्या, अन्यथा शब्दलिङ्गादिप्रतिपत्तेरयोगात् परार्थानुमानरूपाणामपि शास्त्रोपदेशानामप्रवृत्तेः । [ वेदांती आगमादेव तत्त्वसिद्धि मन्यते, जैनाचार्याः तदेकांतं निराकुर्वति । ] ये त्वाहुः -- ' आगमादेव' सर्वं सिद्धं तमन्तरेण प्रत्यक्षेपि माणिक्यादी यथार्थनिर्णयानुपपत्तेः7, अनुमानप्रतिपन्नेपि चिकित्सितादावागमापेक्षणात् ', आगमबाधितपक्षस्यानुमानस्यागमकत्वाच्च, परब्रह्मणः " शास्त्रादेव सिद्धेः, 12 प्रत्यक्षानुमानयोरविद्याविवर्तविषयत्वादा अतएव धर्मी, साधन, उदाहरण का कथंचित साक्षात्कार किये बिना कहीं पर भी अनुमान प्रवृत्त नहीं हो सकता है । पुनः शास्त्र के उपदेश से भी क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । इसलिये अभ्यस्त विषय में प्रत्यक्ष से भी सिद्धि स्वीकार करना चाहिये अन्यथा शब्द और लिंगादि से भी ज्ञान नहीं हो सकेगा। पुनः परार्थानुमान रूप शास्त्रोपदेश की प्रवृत्ति भी नहीं हो सकेगी । [वेदांती सभी तत्त्वों की सिद्धि आगम से ही मानते हैं किन्तु जैनाचार्य एकांत का निराकरण करते हैं ।] ब्रह्माद्वैतवादी - -आगम से ही सभी तत्त्व सिद्ध होते हैं क्योंकि आगम के बिना प्रत्यक्ष माणिक्य आदि में भी यथार्थ निर्णय नहीं हो सकता है । अनुमान से प्रतिपन्न भी चिकित्सा आदि वैद्यकशास्त्र में आगम की अपेक्षा देखी जाती है । आगम से बाधित पक्ष वाला अनुमान भी आगमक है । अर्थात् जैसे "ब्राह्मण को मदिरा पीना चाहिये क्योंकि वह द्रव द्रव्य है, दूध के समान है" इत्यादि अनुमान वाक्यों में "न सुरां पिबेत् न पलाण्डुं भक्षयेत्" मदिरा नहीं पीना चाहिये, प्याज नहीं खाना चाहिये इत्यादि आगम वाक्यों से बाधा आने से पक्ष बाधित हैं । इस प्रकार से लौकिक तत्त्व ही आगम से सिद्ध हो ऐसी बात नहीं है किन्तु पारमार्थिक तत्त्व भी आगम से ही सिद्ध होते हैं । परम ब्रह्म भी आगम से ही सिद्ध है क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण तो अविद्या की पर्याय को ही विषय करते हैं किन्तु आगम के विषयभूत, सन्मात्रस्वरूप, परमात्मा ही प्रमाणपने का व्यवहार देखा जाता है एवं ये शास्त्र के उपदेश अबाधित ही हैं। 1 अनुमानस्य । दि० प्र० । 2 स्वरूपापेक्षया न पररूपापेक्षया । ब्या० प्र० । 3 साध्ये | ब्या० प्र० । 4 स्वार्थानुमानम् । व्या० प्र० । 5 परार्थानुमानम् । ब्या० प्र० । 6 ब्रह्माद्वैतवादिनः । दि० प्र० । 7 उपेयतत्त्वम् । ब्या० प्र० । 8 अनुभवप्रतिपन्नेपि । इति पा० । दि० प्र० । 9 रोगप्रतीकारावोषधे । ब्या० प्र० । 10 परमब्रह्मणः । इति पा० | ब्या० प्र० । 11 परार्थानुमानात् । व्या० प्र० । 12 अविद्यारूपाश्च ते विवर्ताश्च । व्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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