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अष्टसहस्री
[ षष्ठ प० कारिका ७६ [ केचित् बौद्धा हेतुना एव सर्वतत्त्वसिद्धि मन्यते, जैनाचार्याः तदेकांतं निराकुर्वति ।।
तत्र हेतुत एव सर्वमुपेयतत्त्वं सिद्धं, न प्रत्यक्षात्, तस्मिन्सत्यपि विप्रतिपत्तिसम्भवात्, युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्टवापि न श्रद्दधे इत्यादेरेकान्तस्य' बहुलं दर्शनात, अर्थानर्थविवेचनस्यानुमानाश्रयत्वात्तद्वि प्रतिपत्तेस्तव्यवस्थापनायाहेत्वादिवचनात् । प्रत्यक्षतदाभासयोरपि' व्यवस्थितिरनुमानात, अन्यथा संकरव्यतिकरोपपत्तरर्थानर्थविवेचनस्य प्रत्यक्षाश्रयत्वासंभवात् । इति केचित्तेषां प्रत्यक्षाद्गतिरनुमानादादितोपि न स्यात् । न च मिणः साधनस्योदाहरणस्य च प्रत्यक्षादगतौ कस्यचिदनुमानं प्रवर्तते । अनुमानान्तरात्तद्गती
[कोई बौद्ध हेतुमात्र से ही सभी तत्त्वों की सिद्धि मानते हैं किन्तु जैनाचार्य इस एकांत का परिहार
करते हैं। बौद्ध-"सभी उपेय तत्त्व हेतु से ही सिद्ध हैं प्रत्यक्ष से नहीं। क्योंकि प्रत्यक्ष के होने पर भी विसंवाद संभव है । युक्ति से जो घटित नहीं होता है उसको हम देखकर भी श्रद्धा नहीं करते हैं।
___ जैन-यह आप बौद्ध का कथन ठीक नहीं है । हेतुवाद इत्यादि बहुत प्रकार से एकान्त मत देखे जाते हैं । अर्थ और अनर्थ का विवेचन अनुमान के आश्रित है फिर भी उसमें विसंवाद हो जाने पर उनकी व्यवस्था करने के लिये अहेतु आदि आगम आदि वचन देखे जाते हैं।
बौद्ध-प्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्षाभास की व्यवस्था भी अनुमान से ही होती है क्योंकि प्रत्यक्ष तो निर्विकल्पक है । अन्यथा प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षाभास में संकर व्यतिकर दोष आ जावेंगे। अतएव अर्थ और अनर्थ का विवेचन भी प्रत्यक्ष के आश्रित नहीं हो सकता है।
जैन-यदि आप अनुमानवादी बौद्ध ऐसा कहते हैं, तब तो आपके यहां प्रत्यक्ष होने वाले आदि के (प्रथम) के अनुमान से भी उपेय तत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकेगा। क्योंकि अनुमान की उत्पत्ति के लिये धर्मी, साधन और उदाहरण का प्रत्यक्ष दर्शन अवश्यम्भावी है और ऐसा न मानने पर तो किसी को अनुमान ज्ञान हो ही नहीं सकेगा। यदि अनुमानान्तर से धर्मी आदि का ज्ञान माना जावे तब तो वह अनुमानान्तर भी धर्मी, साधन और उदाहरणपूर्वक ही होगा। एवं पुन: उसके लिये अनुमानान्तर की अपेक्षा करनी पड़ेगी और अनवस्था दोष आ जावेगा।
1 अभिनिवेशस्य । ब्या०प्र०। 2 अर्थानथौं हिताहिते । ब्या० प्र०। 3 च । दि० प्र०। 4 मोक्ष । दि० प्र०। कुतोनुमानमित्युक्त आह । ब्या० प्र०। 5 प्रत्यक्ष । दि० प्र०। 6 हेत्वाख्यं प्रकरणम् । ब्या० प्र०। 7 किञ्च । ब्या०प्र०। 8 प्रत्यक्षस्य निविकल्पकत्वात् । ब्या० प्र०। 9 आह स्याद्वादी तेषामनुमानवादिनामुपेयादितत्त्वस्य प्रत्यक्षप्रमाणादेव निश्चितिः। केवलं हेतूपदेशाभ्यां न स्यात् = पर्वतादेर्द्धर्मिणः धूमत्वादेः साधनस्य महानसादेरुदाहरणस्य प्रत्यक्षादनिश्चिती सत्यां कस्यचित्पुंसोनुमानं न प्रवर्तते-धर्मिसाधनोदाहरणादीनामनुमानानिश्चितौ सत्यां तदप्यनुमानं धर्मिप्रमुखनिर्णयपूर्वकेन तदप्यन्यमनुमानमपेक्षत इत्यनवस्था । दि० प्र.। 10 धादि । दि० प्र०।
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