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________________ आपेक्षिक और अनापेक्षिक एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३४३ काले तबुद्धिविषयत्वप्रसङ्गात् । 'तदनेन प्रतिनियतबुद्धिविषयत्वस्य हेतोविरुद्धत्वं प्रतिपादितं तस्य कथंचिदापेक्षिकत्वेन व्याप्तत्वात् प्रत्यक्षबुद्धिप्रतिभासित्ववत् । ततो नैतावेकान्तौ घटते, वस्तुव्यवस्थानाभावानुषङ्गात् । विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥७४॥ अनन्तरैकान्तयोर्युगपद्विवक्षा' मा भूद्विप्रतिषेधात् सदसदेकान्तवत् स्याद्वादानाश्रयणात् । तथानभिधेयत्वैकान्तेपीति कृतं विस्तरेण, सदसत्त्वाभ्यामनभिधेयत्वैकान्तवत् । निरपेक्ष प्रतिनियत व्यतिरेक बुद्धि का विषय संभव नहीं है। अन्यथा किसी एक घटादि व्यक्ति में भी प्रथम दर्शन काल में उस अन्वय बुद्धि और व्यतिरेक बुद्धि के विषय का प्रसंग आ जायेगा। इसी कथन से प्रतिनियत बुद्धि विषयत्व हेतु सापेक्षिकत्व को सिद्ध करने वाला होने से विरुद्ध है ऐसा प्रतिपादित किया गया है। क्योंकि वह हेतु कथंचित् आपेक्षिकत्व से व्याप्त है जैसे कि दूर और निकट आदि का प्रत्यक्ष बुद्धि में प्रतिभासित न होना रूप हेतु कथंचित् आपेक्षिकपने के साथ व्याप्त है। अतएव आपेक्षिक ही होना और अनापेक्षिक ही होना ये एकांत रूप से घटित नहीं हो सकते हैं । अन्यथा वस्तु की व्यवस्था का ही अभाव हो जायेगा। यदि आपेक्षिक सिद्धि अनापेक्षिक सिद्धि का ऐक्य कहें। स्याद्वाद बिन नहीं घटेगा चूंकि परस्पर विरुद्ध है ।। इन दोनों का "अवक्तव्य" एकांत रूप से यदि मानों। तब तो "अवक्तव्य" यह कहना स्ववचन बाधित ही जानो ॥७४।। कारिकार्थ-स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ एकांत से आपेक्षिक और अनापेक्षिक रूप उभयैकात्म्य भी सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। एकांत से अवाच्यता को ही मानने पर तो "अवाच्य" इस प्रकार से कथन भी नहीं बन सकता है ।।७४।। अनंतैरकांत-आपेक्षिक, अनापेक्षिक की एक साथ विवक्षा नहीं हो सकती है । सत्, असत्एकांत के समान उनमें भी परस्पर में विरोध आता है। क्योंकि स्याद्वाद का आश्रय नहीं लिया गया है। 1 तस्मात् । ब्या० प्र०। 2 दूरतरादिप्रत्यक्षबुद्धिप्रतिभासित्वं यथा कथञ्चिदापेक्षिकत्वेन व्याप्तम् । दि० प्र० । 3 यत एवं ततोपेक्षकान्तानपेक्षकान्तौ एतौ न घटेते चेत्तदा वस्तुवस्तुव्यवहारी न भवतः । दि० प्र०। 4 अनन्तरं पूर्वमुक्तौ एकान्तो यो तो अनन्तरैकान्तो तयोरनन्तरैकान्तयोः सर्वथान पेक्षयोः । दि० प्र०। 5 कथञ्चित् । दि० प्र० । 6 अवाच्यता । ब्या०प्र०17 । दि० प्र० । 8 अलम् । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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