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'आपेक्षिक और अनापेक्षिक एकांतवाद का खण्डन ] चतुर्थ भाग
[ ३४१ योरिव तत्स्वभावशून्ययोस्तदयोगात् । तदिमौ स्वभावतः स्तामन्यथेतरेतराश्रयदोषानुषङ्गात् । एतेन स्वाश्रयशब्दाद्यपेक्षया सत्त्वादेर्धर्मत्वेन स्वधर्मापेक्षायां धर्मित्वं नाव्यवस्थाकारित्वेनायुक्तमिति प्रकाशितं, तथाविधस्वभावविशेषाभावे परापेक्षयापि धर्मर्मिभावानुपपत्तेः, अनन्तत्वाच्च धर्माणां 'तदपेक्षिणामप्यपर्यन्तत्वात् , 'अन्यथाभिप्रेतधर्मर्मिणोरप्यव्यवस्थापत्तेः । इति नापेक्षकान्तः श्रेयान् ।
दूर और निकटवर्ती दो पदार्थों में भी स्वभाव पर्याय विशेष के अभाव होने पर तो समान देशवर्ती आदि पदार्थों में भी दूर-आसन्नादि भाव का प्रसंग आ जायेगा।
समान देश काल भाव वाले दो पदार्थों में परस्पर की अपेक्षा से भी दूर और निकट का व्यवहार नहीं है।
दूरासन्न स्वभाव से शून्य दो खर विषाण में वह दूर-निकट व्यवहार नहीं देखा जाता है।
अतएव ये दोनों दूर और आसन्न भाव स्वभाव से ही हैं अन्यथा इतरेतराश्रय दोष का प्रसंग आ जायेगा।
इसी कथन से स्वाश्रयभूत शब्दादि की अपेक्षा से सत्त्वादि धर्म रूप हैं और स्वधर्म की अपेक्षा करने पर वे ही सत्त्वादि धर्मी हैं । इसलिये अव्यवस्थाकारी होने से अयुक्त है । यह कहना ठीक नहीं है। यहाँ यह प्रकाशित किया गया है। तथाविध स्वभाव विशेष का (वास्तविक धर्म-धर्मी स्वरूप का) अभाव होने पर तो पर की अपेक्षा से भी धर्म-धर्मी भाव बन नहीं सकता है। क्योंकि धर्म अनंत रूप है और उन धर्मों का अपेक्षी धर्मी भी अनंत हो जायेगा। अन्यथा-सभी धर्म और धर्मी की स्वतः सिद्धि न मानने पर अपने को इष्ट धर्म और धर्मी की भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसलिये आपेक्षिककृत एकांत भी श्रेयस्कर नहीं है।
1 अतिप्रसङ्गो भवति स च नास्ति यतः। दि० प्र० । 2 अर्थयोः। दि० प्र०। 3 तत्तस्मादिमौ धर्ममिणौ स्वरूपेण भवतामन्यथा स्वरूपेण न स्याच्चेत्तदा धर्ममपेक्ष्य धर्मिणो धर्मिणमपेक्ष्य धर्म वर्तत इति लक्षण इतरेतराश्रयदोषः संभवति । दि० प्र० । 4 सत्त्वस्य । दि० प्र० । 5 ज्ञेयत्व । दि० प्र०। 6 धर्ममिणोः स्वरूपसिद्धत्वाभावेपीति केवलं परापेक्षया धर्ममित्वं नोत्पद्यते = वस्तुनोध निन्तास्तेषामपेक्षया धर्मिणोप्यनन्ताः अन्यथोभयोरनन्तत्वानङ्गीकारे विवक्षितौ धर्मर्मिणावपि न व्यवतिष्ठेते कोथंः शून्यतामापोते = इति हेतोधर्ममिणोः सर्वथापेक्षत्वं न श्रेयस्करम् । दि०प्र०17 तदपेक्षार्मिणामप्यपर्यन्तत्वात् । इति पा. 1 दि०प्र०। 8 अपि शब्दो हेत्वन्तरद्योतकः । दि० प्र०। 9 सत्त्वशब्दलक्षणयोः । दि० प्र० ।
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