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अथ पञ्चमः परिच्छेदः ।
ज्ञानेकरूपं परमात्मसंज्ञं स्वायंभुवं स्वात्मगुणौघतुष्टम् । कर्मारिनाशाय वयं निजानां तं देवदेवं प्रणुमः सुभक्त्या ॥ १ ॥ स्फुटमकलङ्कपदं या प्रकटयति पटिष्टचेतसामसमम् । दशतसमन्तभद्रं साष्टसहस्त्री सदा जयतु ॥१॥
'यद्यापेक्षिकसिद्धिः ' 'अनापेक्षिकसिद्धौ
स्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते । सामान्यविशेषता ॥७३॥
च न
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पंचम परिच्छेद
ज्ञान ही है एक स्वरूप जिनका जो 'परमात्मा' इस नाम को धारण करने वाले हैं, 'स्वयंभू' भगवान हैं और जो अपने आत्मा के गुणों के समूह से संतुष्ट हो चुके हैं, हम अपने कर्म शत्रुओं को नष्ट करने के लिये ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं । (यह हिन्दी टीकाकर्त्री द्वारा रचित श्लोक है 1)
श्लोकार्थ - जो बुद्धिमान पुरुषों के लिये अनुपम, अकलंक - निर्दोष पद को प्रकट करने वाली है अथवा जो भट्टाकलंक देव के द्वारा की गई अष्टशती के अनुपम पदों को स्फुट करने वाली है । एवं जो समंत - चारों तरफ से भद्र - कल्याण को दिखलाने वाली है अथवा श्री स्वामी समंतभद्राचार्य कृत देवागमस्तोत्र नामक मूल स्तुति को दिखाने वाली है । ऐसी श्री विद्यानंदि आचार्य द्वारा विरचित अष्टसहस्री सदा जयशील होवे ॥१॥
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धर्म और धर्मी आपस में यदि आपेक्षिक एक दूसरे के अभाव से दोनों ही तब यदी परस्पर अनपेक्षा से दोनों सिद्ध कहे जाते ।
सिद्ध कहें । नष्ट हुये ||
तब सामान्य विशेष उभय भी एक बिना नहिं रह सकते ||73||
1 स्फुटमित्यादि अकलंकपदं देवागमस्तोत्रम् । कलङ्करहितपदमिति व्युत्पत्तेः किं विशिष्टं तत् दर्शितसमन्तभद्रं दर्शितानि समंताद्भद्राणि येन तत् पक्षान्तरे अकलङ्कपदं वृत्तिग्रन्थं किं विशिष्टं दर्शितसमन्तभद्रं दर्शितदेवागमस्तोत्रम् | दि० प्र० । 2 बसः । ब्या० प्र० । 3 सर्वोत्कर्षेण वर्तताम् । दि० प्र० । 4 जयति । इति पा० । दि० प्र० । 5 चेत् । दि० प्र० । 6 कारिकाद्वयेन सामान्यविशेषात्मानमर्थं संहृत्य तत्रापेक्षानपेक्षकान्ते प्रतिक्षेपयन्नाह । दि० प्र० । 7 अपेक्षया बुद्धया विकल्पज्ञानेन जनिता न पारमार्थिकी धर्मधर्मिणोः सिद्धि रित्युक्ते विशेष्यविशेषत्वादेः कार्यं निष्पत्ति प्रति विकल्पज्ञानादेवसिद्धिर्नतु परमार्थतोयं धर्मोयं घर्मीति विकल्पोनैव । दि० प्र० । 8 सर्वथा । दि० प्र० ।
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