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________________ अनेकांत की सिद्धि ] [ ३३५ तृतीय भाग 'कार्यादेर्भेद एव स्फुटमिह नियतः सर्वथा 'कारणादेरित्यायेकान्तवादोद्धततरमतयः शान्ततामाश्रयन्ति । प्रायो यस्योपदेशादविघटित'नयान्मानमूलादलङ्घयात्, स्वामी जीयात् स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलङ्कोरुकीतिः ।। इत्याप्तमीमांसालंकृतौ चतुर्थः परिच्छेदः । ४ । श्लोकार्थ-कार्य और कारणादि में सर्वथा स्फुट रीति से भेद ही है इत्यादि रूप से एकांतवाद से उद्धत्तमति को धारण करने वाले वैशेषिक, बौद्धादि मिथ्यावादी जन जिनके प्रमाण मूलक, अलंध्य एवं अविघटित नय रूप उपदेश से प्रायः शांति को प्राप्त हो जाते हैं ऐसे अकलंक-निर्दोष, महान् कीर्तिमान् शाश्वत् प्रसिद्धतर यत्रियों के ईश श्री स्वामी संमतभद्राचार्यवर्य इस पृथ्वी पर सदैव जयशील होवें। दोहा भेदस्वरूप अभेद या, तत्त्व कहे एकांत । इन्हें छोड़ जिनवचन में, प्रीति करे भव अंत ॥१॥ इस प्रकार श्री विद्यानंद आचार्य कृत 'आप्तमीमांसालंकृति' अपरनाम 'अष्टसहस्री' ग्रंथ में आर्यिका ज्ञानमती कृत भाषा अनुवाद, पद्यानुवाद भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस 'स्याद्वाद चितामणि' - नामक टीका में यह चतुर्थ परिच्छेद पूर्ण हुआ Sailu 1 ता । ब्या०प्र०। 2 व्यवस्थितः । ब्या० प्र०। 3 का । दि० प्र० । 4 अभेदः । ब्या० प्र०। 5 अतिशयेन । दि० प्र०16 स्वामिनः । दि० प्र०। 7 युक्ति । दि० प्र०। 8 परमताश्रयैर्वादिभिः । दि० प्र०। 9 अकलंका उरूगरिष्ठा कीर्तिर्यस्य सः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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