________________
३३४ ]
मष्टसहस्री
चतुर्थ परिच्छेद का निष्कर्ष
इस चतुर्थ परिच्छेद में पहले वैशेषिक मत संमत भेदैकांत का खण्डन किया गया है। उसमें पहले इकसठवीं कारिका में उनका पूर्व पक्ष दिखाया गया है। तथाहि कार्य-कारणादि, गुण-गुणी आदि परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं क्योंकि भिन्न लक्षण वाले हैं एवं उनका भेद रूप से प्रतिभास होता है । सर्वथा उनको अभिन्न मान लेने पर कार्य, कारण आदि स्वरूप नहीं घटित होता है क्योंकि कार्य तो उसके उत्तर समयवर्ती है और उसके पूर्व अव्यवहित समय में ही रहता है एवं जिनमें परस्पर में भेद नहीं है उनका देश अथवा काल भी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकेगा।
कार्य और कारण के देशकाल भिन्न-भिन्न हैं। अतएव ये भिन्न-भिन्न ही हैं। इस प्रकार से पूर्व पक्ष का समर्थन करके बासठवीं कारिका से उसका खण्डन किया गया है ।
यथा च अन्यत्वैकांत में भी एक कार्य की अनेक कारण आदि में प्रवृत्ति स्वीकार करना ही चाहिये । यदि स्वीकार नहीं करेंगे तब तो कार्य कारण आदि भावों का ही विरोध हो जायेगा और यदि सर्वात्म रूप से या एक देश से कार्य की वृत्ति कारणादि में मानोगे तब तो एक कार्य भी बहुत रूप हो जायेगा अथवा वह बहुप्रदेशी हो जायेगा।
परन्तु उस प्रकार से भेदैकांत में सम्भव नहीं है और ऐसा मान लेने पर तो एकांतवाद ही विघटित हो जायेगा।
पूर्व में कारण दशा में अनेक को कार्य रूप मान लेने पर एकत्व संभव होने से सर्वथा अन्यत्व घटित नहीं हो सकेगा एवं समवाय से भी वृत्ति घटित नहीं होती है क्योंकि उसका पहले ही निराकरण किया जा चुका है। अदृष्ट के निमित्त से वृत्ति की कल्पना करने पर तो प्रत्यक्ष सिद्ध कथंचित् भेद ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हो ?
इत्यादि प्रकार से वैशेषिक का निराकरण किया गया है। पुनः सड़सठवीं कारिका से बौद्धमत का खण्डन किया गया है । अनंतर उन्सठवीं कारिका से सांख्यमत का निषेध है।
एवं सत्तरवीं कारिका का स्याद्वाद का विधान करते हुए सभी बातें सुघटित रूप से घटित
की हैं।
इस प्रकार से इस चतुर्थ परिच्छेद का निष्कर्ष समझना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .