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________________ ३२८ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ७१-७२ [ द्रव्यपर्याययोर्लक्षणं भिन्नमेवेति स्पष्टयंति जैनाचार्याः। ] तत्र द्रव्यस्य लक्षणं गुणपर्ययवत्त्वं, “गुणपर्ययवद्रव्यम्” इति वचनात्, क्रमाक्रमभाविवचित्रपरिणामाभावे द्रव्यस्य लक्षयितुमशक्तेः, द्रव्यस्यापाये गुणपर्ययवत्त्वस्यानुपपत्तेः कार्यद्रव्ये घटादिविशेषे गुणवत्त्वस्य' भावान्नवपुराणादिपर्याययोगित्वस्य च भावान्नाव्याप्तिर्लक्षणस्य । नाप्यतिव्याप्तिः, स्पर्शादिविशेषेषु क्रमजन्मसु पर्यायेषु स्पर्शादिसामान्येषु सहभाविषु गुणेषु चाभावात् । तथा पर्यायस्य तद्भावो लक्षणं, “तद्भावः परिणाम" इति वचनात् । तेन तेन प्रतिविशिष्टेन रूपेण भवनं हि परिणामः, सहक्रमभाविष्वशेषपर्यायेषु तस्य भावादव्याजायेगा, जो कि शब्द का लक्षण ही नहीं बनेगा अतः श्रावणत्व ही शब्द का लक्षण है ऐसा सिद्ध हो जाता है। क्योंकि शब्दात्मकत्व के अभाव में वह श्रावणत्व लक्षण बन ही नहीं सकता है । इसलिये अन्यथानुपपत्ति रूप, पक्षव्यापी ही लक्षण है क्योंकि वह निर्दोष है। यह बात सिद्ध हो गई है। [ द्रव्य और पर्याय इन दोनों के लक्षण भिन्न भिन्न हैं । इस बात को जैनाचार्य स्पष्ट करते हैं ] अब द्रव्य और पर्याय इन दो में से द्रव्य का लक्षण कहते हैं। द्रव्य का लक्षण गुण, पर्यायवान् है "गुणपर्ययवद् द्रव्य" इस प्रकार से भी सूत्रकार का वचन है। क्रम एवं अक्रम से होने वाले विचित्र परिणाम के अभाव में द्रव्य का लक्षण करना अशक्य है एवं द्रव्य के अभाव में "गुण पयर्यवत्त्व" उसका लक्षण भी नहीं बन सकेगा। क्योंकि कार्य द्रव्य घटादि विशेष में ही गणवत्त्व का सद्भाव है और नयी-पुरानी आदि पर्यायों का योग भी मौजूद है । अतः यह लक्षण अव्याप्त नहीं है। अतिव्याप्ति दोष भी इसमें नहीं है । क्योंकि स्पर्शादि विशेष रूप क्रमवर्ती पर्यायों में और स्पर्शादि सामान्य रूप सहभावी गुणों में इस "गुण पर्ययवत्त्व" लक्षण का अभाव है। इस प्रकार से पर्याय का 'उस रूप होना' यह लक्षण है, "तद्भावः परिणामः" यह सूत्रकार का वचन है। उस उस प्रतिविशिष्ट रूप में होना ही परिणाम है। सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायें कहलाती हैं। इन सहक्रम भावी अशेष गुण पर्यायों में यह तद्भाव लक्षण मौजूद है। अतः इस लक्षण में अव्याप्ति दोष असंभव है। क्योंकि उस लक्षण के अभाव में द्रव्य में वे परिणाम विशेष (सहभावी क्रमभावी) हो ही नहीं सकते हैं। 1 रूपादि । ब्या० प्र० । 2 लक्ष्यैकदेशे लक्षणस्य वृत्तिख्याप्तिः । ब्या० प्र० । 3 लक्ष्यवृत्तिलक्ष्यान्तरगमनमतिव्याप्तिः। व्या० प्र०। 4 स्या० वदति क्रमभाविषु स्पर्शादिविशेषेषु पर्यायेषु तथा सहभाविषु स्पर्शादिसामान्येषु गुणेषु च द्रव्यलक्षणस्याभावादिति व्याप्ति मदोषो नास्ति = द्रव्यस्य गुणपर्यायवद्रव्यमिति लक्षणं प्रतिपाद्य पर्यायलक्षणमाह । तदभावः पर्यायस्य लक्षणं तद्भावः परिणाम इति सूत्रकारमतात् । तद्भाव इति कोर्थस्तेन तेन रूपरसादिभेदभिन्नेन रूपेण भवनं भावस्तद्भाव इति परिणामः पर्यायं कुतः सहक्रमभाविषु सकलपर्यायेषु तस्य परिणामस्य सद्भावात् । अव्याप्तिनामा दोषो न संभवति यतः = द्रव्ये द्रव्यविषये तत्रस्थ परिणामस्याभावे सति तत्तस्यातिव्याप्तेरनुत्पादात् । दि० प्र०। 5 नियतेनासाधारणेनेति । दि० प्र०। 6 परिणामस्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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