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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ३२६ प्त्यसंभवात्', 'तदभावे च द्रव्ये तदनुपपत्तेः। इति प्रमाणसिद्ध' भिन्नलक्षणत्वं द्रव्यपर्याययोः कथंचिन्नानात्वं साधयति, रूपाद्युदाहरणस्यापि साध्यसाधनवैकल्याभावात्, कथंचिन्नानात्वेन व्याप्तस्य भिन्नलक्षणत्वस्य परस्परविविक्तस्वभावपरिणामादित्वेन साधनात् । रूपादेहि लक्षणं 6रूपादिबुद्धिप्रतिभासयोग्यत्वं' भिन्न प्रसिद्ध कथंचित्तन्नानात्वं चेति' निरवद्यमुदाहरगम् । ननु च भिन्नलक्षणत्वं स्यान्नानात्वं च न स्याद्विरोधाभावात् । ततः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिको हेतुरिति न शङ्कनीयं, 11विरुद्धधर्माध्यासास्खलबुद्धिप्रतिभासभेदाभ्यां च वस्तु इस प्रकार से प्रमाण से सिद्ध भिन्न लक्षणत्व, द्रव्य और पर्याय को कथंचित् भिन्न-भिन्न सिद्ध कर देता है। हमारा “रूपादि" उदाहरण भी साध्य साधन से विकल नहीं है। कथंचित नानापने से व्याप्त ऐसे भिन्न लक्षणत्व व्याप्य को परस्पर भिन्न स्वभाव, परिणाम, संज्ञा, संख्या, प्रयोजनादि रूप से सिद्ध कर देता है। रूपादि ज्ञान में प्रतिभास की योग्यता, यह रूपादि का भिन्न लक्षण प्रसिद्ध है और कथंचित ये रूपादि नाना रूप हैं । यह भी प्रसिद्ध है। इसलिये यह उदाहरण निर्दोष है। सांख्य-द्रव्य और पर्याय में भिन्न लक्षण होवे, किन्तु परस्पर में उनमें भेद नहीं होवे। इसमें कोई विरोध नहीं है। अत: आपके परिणाम-विशेषाच्च इत्यादि हेतु संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्तिक हैं। जैन-आपको ऐसी शंका नहीं करना चाहिये। विरुद्ध धर्माध्यास और अबाध्यमान् बुद्धि के प्रतिभास भेद से वस्तु में स्वभाव भेद सिद्ध है । अन्यथा नाना रूप से रहित यह जगत् एक रूप हो जायेगा। इस प्रकार से स्वीकार करने पर तो भिन्न पक्ष असंभव ही है। अर्थात विरुद्ध धर्माध्यास और अस्खलित बुद्धि प्रतिभास भेद-इन दो को छोड़कर और तीसरा प्रकार असंभव ही है । 1 त्रिबाहपुरुषद्रव्यादिरसम्भवः । ब्या० प्र० । 2 पर्यायरहिते । ब्या० प्र० । 3 परिणामविशेषादित्यादि हे चतुष्टयरूपः । या । 4 इति द्रव्यपर्याययोः प्रमाणसिद्धं भिन्न लक्षणत्वं कथञ्चिन्नानात्वं साधयति =रूपादिदष्टान्तस्यापि प्रमाणसिद्धं भिन्नलक्षणत्वं कथञ्चिन्नानात्वं साधयति कस्मात्साध्यसाधनविकलत्वासंभवात् । रूपादय: पक्षः कथञ्चिबामा भवन्तीति साध्यो धर्मः परस्परविविक्तस्वभावपरिणामादिविशेषात् =भिन्नलक्षणत्वं कथञ्चिन्नानात्वेन व्याप्तं सम्बद्ध कोर्थः कथञ्चिन्नानात्वाभावे भित्रलक्षणत्वं न संभवतीति निरवद्यमुदाहरणम् । दि० प्र०। 5 नानात्वेन व्यापकेन । ब्या० प्र० । 6 आदिशब्देन परस्परविविक्तस्वभावसंज्ञासंख्याप्रयोजनादिकं ग्राह्यम् । दि० प्र० 17 ज्ञानम् । वि०प्र०। 8 रूपादनाम । दि० प्र०19 साधयति । 10 अत्राह योगः हे स्याद्वादिन् । द्रव्यपर्याययोभिन्नलक्षणत्वमस्ति नानात्वं नास्ति एकत्वमेव । कुतो विरोधात्त स्मात् हे स्याद्वादिन् ! द्रव्यपर्याययो नात्वव्यवस्थापकः परस्परविविक्तस्वभावपरिणामसंज्ञासंख्यास्वलक्षणप्रयोजनभेदादिति हेतुर्भवदङ्गीकृतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोस्ति इति चेत्स्याद्वाद्याह हे सांख्य ! इति त्वया न करणीयम् । दि० प्र० । 11 साहित्यम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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