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________________ ३२६ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ७१-७२ न्तरस्वभावप्रागभावादेश्च स्वीकरणात् कस्यचित् तद्विपक्षत्वं मा भूत् । 'पराभ्युपगतस्यानुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तस्य विकल्पबुद्धिप्रतिभासिनो विपक्षत्वे सदसद्वर्गाभावस्य पराभ्युपगतस्याप्रमाणविषस्य विपक्षत्वमस्तुसर्वथा विशेषाभावात् । इति नानुपसंहार्यस्य संभवो, यतः पक्षव्यापिन एवासाधारणस्य वस्तुलक्षणत्वं न स्यात्, विद्यमानयोरविद्यमानयोर्वा सपक्षविपक्षयोरसतः पक्षव्यापिनोसाधारणत्ववचनात् । एतेन पक्षाव्यापकस्यासाधारणत्वं प्रत्युक्तं, तस्यासाधारणकदेशत्वाल्लक्षणत्वायोगादग्ने रुष्णत्ववत् । न हि तत् सकलाग्निव्यक्तिष्वस्ति प्रदीपप्रभादिष्वनुभूतोष्णस्पर्शेष्वभावात् । न चानुभूतमपि लक्षणं युक्तमप्रसिद्धत्वात् । यदि पुनरुष्णस्पर्शयोग्यत्वं पावकस्य लक्षणं स्यान्न कश्चिद्दोषः पक्षव्यापिनोऽसाधारणत्वसिद्धेः । रूप साध्य के आश्रय से रहित असत् रूप खर-विषाण कर्म रूप से (प्रमाण के विषय रूप से) प्रमिति को उत्पन्न करने वाला न होने से अप्रमेय रूप जो विपक्ष है उसका सद्भाव देखा जाता है। शंका-"सभी भिन्न हैं" क्योंकि प्रमेय रूप है इसमें 'सर्व शब्द' के द्वारा सत्, असत् दोनों का ग्रहण हो जाता है। इसलिये उस खरविषाण का कोई विपक्ष नहीं है। समाधानयदि ऐसा कहो तब तो 'सत्' के ग्रहण करने से भाव और भावांतर स्वभाव वाले प्रागभाग आदि का ग्रहण हो ही जाता है। पुनः कोई भी असत् उस सत्त्व का विपक्ष नहीं हो सकेगा। शंका-पर के द्वारा स्वीकृत उत्पाद व्यय ध्रौव्य से रहित सत्त्व विकल्प बुद्धि में प्रतिभासित होता है। वह विपक्ष है। अर्थात् सांख्यों ने सत्त्व को उत्पाद व्यय से रहित माना है और सौगत ने सत्त्व को ध्रौव्य से रहित माना है । ये पराभ्युगत सत्त्व विकल्पबुद्धि यानि असत्य बुद्धि में ही प्रतिभासित होते हैं। अतः पर के द्वारा स्वीकृत अनुत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् विकल्प बुद्धि में प्रतिभासित होने वाला है । वे ही पदार्थ सत्त्व हेतु के विपक्षी हैं ऐसा स्वीकार किया गया है। जैन-तब तो सद्वर्ग, असत्वर्ग से रहित अर्थात् वैशैषिक के यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय, ये सद्वर्ग कहलाते हैं और प्रागभावादि असद्वर्ग कहलाते हैं। उन दोनों के अभाव रूप तुच्छा भाव हैं जो कि तत्त्वोपप्लववादी के द्वारा मान्य हैं एवं प्रमाण का विषय नहीं हैं वही प्रमेयत्व की अपेक्षा से विपक्ष रूप हो जावे क्या बाधा है ? क्योंकि सत्त्व और प्रमेयत्व में इस प्रकार से कोई अन्तर नहीं है। अतएव अमुपसंहार्य दोष संभव नहीं है कि जिससे पक्ष व्यापी हेतु ही असाधारण रूप से वस्तु का लक्षण न हो सके। अर्थात् होगा ही। 1 सांख्यः सौगतैश्च । ब्या०प्र० । 2 सर्व वस्तु लक्ष्यं प्रमेयत्वात् । ब्या० प्र० । 3 एकदेशेन पक्षाव्यापकस्य लक्षणस्य ब्या० प्र०। 4 यसः । ब्या० प्र० । साधारणकदेशत्वायोगात् । इति पा० । दि० प्र०। 5 उष्णत्व लक्षणस्य । ब्या० प्र०। 6 प्रदीपप्रभायामनद्भूतमौष्णमस्तीत्युक्ते सत्याह । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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