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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ ३२५ { वस्तुनो लक्षणमसाधारणरूपमिति साधयंति जैनाचार्याः। ] ___ नन्वसाधारणं रूपं वस्तुनो लक्षणमित्युच्यमाने सर्व भिन्न प्रमेयत्वादित्यनुपसंहार्यस्यापि लक्षणत्वप्रसङ्ग इति चेन्न, कर्मतया प्रमितिजनकत्वस्य प्रमेयत्वस्यानुपसंहार्यस्यापि लक्षणत्वाविरोधात् सत्त्ववत् । सद्वस्तुलक्षणम्, “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति वचनात् । ननु च यन्न सन्न तद्वस्तु, यथा शशविषाणमिति विपक्षस्यासतः सिद्धेर्नानुपसंहार्य सत्त्वं सपक्षविपक्षरहितस्य पक्षव्यापिनोनुपसंहार्यत्वादिति चेत् तत एव प्रमेयत्वमप्यनुपसंहार्य मा भूत्, खरविषाणस्यासतो भिन्नत्वानाश्रयस्य कर्मत्वेन प्रमित्यजनकस्याप्रमेयस्य विपक्षस्य भावात् । सर्वशब्देन सतोसतश्च ग्रहणान्न तस्य विपक्षत्वमिति चेत्तहि सद्ग्रहणेन भावस्य भावा
[वस्तु का लक्षण असाधारण रूप है, ऐसा जैनाचार्य सिद्ध करते हैं ] ___ शंका-वस्तु का लक्षण असाधारण रूप होता है ऐसा कहने पर तो "सभी भिन्न हैं क्योंकि प्रमेय हैं।" इस प्रकार से सपक्ष-विपक्ष से रहित अनुपसंहार्य हेतु भी लक्षण हो जावेगा। अर्थात् सभी को पक्ष में ले लेने से सपक्ष और विपक्ष दोनों का ही अभाव हो गया और असाधारणपने का सद्भाव होने से वह लक्षण बन जायेगा, तथा लक्ष्य का गमक भी हो जावेगा, किन्तु ऐसा नहीं है।
समाधान-ऐसा नहीं कहना; क्योंकि कर्म रूप से प्रमिति को उत्पन्न करने वाला अनुपसंहार्य (सपक्ष-विपक्ष रहित) भी प्रमेयत्व हेतु लक्षण हो सकता है।
___ इसमें कोई विरोध नहीं है, जैसे कि सत्त्व हेतु वस्तु का लक्षण हो जाता है । वस्तु का लक्षण सत् है और वह "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसत्" ऐसा सूत्रकार का वचन है ।
__ योग-जो सत् नहीं है वह वस्तु भी नहीं है। जैसे-खरगोश का सींग। सत् का विपक्ष असत् सिद्ध है इसलिये सत्त्व हेतु अनुपसंहार्य नहीं है। क्योंकि जो हेतु सपक्ष और विपक्ष से रहित है तथा पक्ष में व्यापी है वह अनुपसंहार्य कहलाता है।
जैन-यदि ऐसी बात है तब तो उसी प्रकार से प्रमेयत्व हेतु भी अनुपसंहार्य मत होवे । भिन्न
1 स्वसाधारण रूपम् । इति पा० । दि० प्र०। 2 आह परः स्वमिति वस्तुनः साधारणरूपं लक्षणं स्वलक्षणं सर्व पक्षो भिन्नं भवतीति साध्यं प्रमेयत्वात् = उपसंहतु योग्यमुपसंहाय नोपसंहार्यमनुपसंहायं पृथक्कर्तुमशक्यं प्रमेयत्वादित्यनुपसंहार्यस्यापि लक्षणत्वं प्रसजतीति चेत् । दि० प्र०। 3 स्वरूपम् । दि० प्र०। 4 स्याद्वाद्याह हे पर यदुक्तं त्वया तन्न कुतः प्रमेयत्वं प्रमिति स्वार्थनिश्चितं फलज्ञानमुत्पादयत्यतः प्रमेयत्वं कार्यरूपं जातं कार्यत्वेन कृत्वाऽनुपसंहार्यस्यापि प्रमेयत्वस्य लक्षणत्वं न विरुद्धयते यतः यथा सत्त्वस्य कार्यतयाऽनुपसंहार्यस्य लक्षणत्वं न विरुद्धचते उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदित्यागमात्सद्वस्तुलक्षणम् =आह=परः अहो स्याद्वादिन् यत्सन्नास्ति तद्वस्तु नास्ति यथा शशविषाणमिति विपक्षस्यासत्त्वस्य संभवात् । न चाभ्युपगतं सत्त्वमनुपसंहाय न भवति कुतः सपक्षविपक्षाभ्यां रहितस्य पक्षव्यापकस्यानुपसंहार्यत्वं सिद्धपति यत इति चेत् । दि० प्र०। 5 प्रमाण विषयभूततया=साध्यस्य । दि० प्र०। 6 ननु यन्न इति पा० । दि० प्र० । 7 अभावरूपस्य । ब्या०प्र० । 8 साध्यस्य । ब्या० प्र० ।
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