SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ३२३ [ द्रव्यपर्यायोः कथंचित् भेदोऽपि वर्तते जैनाचार्याः साधयति । ] भेदः कथं सिद्धः ? इत्युच्यते, 'यत्परस्परविविक्तस्वभावपरिणामसंज्ञासंख्याप्रयोजनादिकं तद्भिन्नलक्षणं, यथा रूपादि, तथा च द्रव्यपर्यायौ, तस्माद्भिन्नलक्षणावित्यनुमानात् परस्परविविक्तस्वभावपरिणामौ हि द्रव्यपर्यायौ, द्रव्यस्यानाद्यनन्तकस्वभाववैश्रसिकपरिणाम त्वात् पर्यायस्य च साद्यन्तानेकस्वभावपरिणामत्वात् । ततो नासिद्धः परिणामविशेषादिति हेतुः । एतेन शक्तिमच्छक्तिभावः' सिद्ध: कथितः । परस्परविविक्तस्वभावसंज्ञासंख्याविशेषौ च द्रव्यपर्यायौ, द्रव्ये द्रव्यमिति, पर्याये पर्याय' इत्यन्वर्थसंज्ञायाः प्रसिद्धः, एक द्रव्य [जैनाचार्य द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् भेद को भी सिद्ध कर रहे हैं ।] शंका-पुनः इन दोनों में भेद कैसे सिद्ध होगा? समाधान-जो परस्पर में भिन्न स्वभावरूप परिणाम, संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदि हैं वे भिन्न-भिन्न लक्षण हैं। जैसे-रूपादि एवं उसी प्रकार से द्रव्य और पर्याय हैं। इसलिए वे भिन्न लक्षण वाले हैं। इस अनुमान से परस्पर भिन्न स्वभाव-रूप परिणाम वाले ही द्रव्य और पर्याय हैं, यह सिद्ध किया है। क्योंकि द्रव्य तो अनादि अनंत एक स्वभावरूप वैसस्रिक परिणाम वाला है और पर्याय सादि सांत रूप अनेक स्वभाव रूप परिणाम वाली हैं। इसलिये उपर्युक्त अनुमान में "परिणाम विशेषात्" यह हेतु असिद्ध भी नहीं है । यह हेतु कारिका में दिया गया है । इसी कथन से द्रव्य पर्याय में शक्तिमान् शक्तिभाव भी सिद्ध है ऐसा कहा गया है। द्रव्य और पर्याय परस्पर में भिन्न-भिन्न स्वभाव संज्ञा, संख्या विशेष रूप हैं। क्योंकि द्रव्य में 'द्रव्य' एवं पर्याय में 'पर्याय' इस प्रकार की अन्वर्थ संज्ञा-नाम प्रसिद्ध ही है । द्रव्य ‘एक है' इस प्रकार से एकत्व संख्या तथा पर्याय बहुत हैं, इस 1 बसः । ब्या० प्र०। 2 द्रव्यपर्यायौ पक्षः कथञ्चिदिन्नौ भवत इति साध्यो धर्मः परस्परविविक्तस्वभावपरिणामसंज्ञासंख्याप्रयोजनादिकत्वात । यत्परस्परविविक्तस्वभावपरिणामसंज्ञासंख्याप्रयोजनादिकं तद्भिन्नलक्षणं यथारूपरसादिकं परस्परं परस्परविविक्तस्वभावपरिणामसंज्ञासंख्याप्रयोजनादिकं द्रव्यपर्यायो तस्माद्भिन्नी इत्यनुमानाद्रव्यपर्याययोर्भदेः सिद्ध। दि० प्र०। 3 द्रव्यपर्यायौ पक्षः कथञ्चिदिन्नौ भवत इति साध्यो धर्मः परस्परविविक्तस्वभाव. परिणामत्वात् यथा रूपादि=परिणामविशेषादिति हेतुरसिद्धो न कुतोनाद्यनन्तकस्वभाववैश्रसिकपरिणामं यतः । पर्यायः सादिसान्तोऽनेकस्वभावपरिणामो यतः । दि० प्र०। 4 आद्यन्ताभ्यां सह वर्तत इति साद्यन्तः । दि० प्र० । 5 असिद्धत्वनिराकरणेन । ब्या० प्र०। 6 एतेन परिणामविशेषादिति हेतुना द्रव्यपर्याययोभिन्नत्वव्यवस्थापनद्वारेण शक्तिमच्छक्तिभावत्वादिति हेतुरसिद्धोऽभाणि द्रव्यपर्यायो कथञ्चिभिन्नी परस्परविविक्तस्वभावसंज्ञासंख्याविशेषत्वादिति हेतुद्वयम् । दि० प्र०। 7 समनन्त रोक्तपरिणामवतो द्रव्यस्य शक्तिमत्वात् समनन्तरोक्तं परिणामवतः पर्यायस्य च शक्तित्वात् । दि० प्र०। 8 द्रवति द्रोष्यत्यद्रवदिति द्रव्यम् । ब्या० प्र०। 9 पर्यनुक्रमेणायाति वर्तते तस्येति पर्याय: । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy