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________________ ३२२ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ७१-७२ र्यमाणस्य सर्वथानुपपत्तेरित्येकत्वानेकत्वैकान्तौ नान्योन्यं विजयेते, दूषणसमाधानयोः समानत्वात्', द्वयोरपि भावस्वभावप्रतिबन्धात्। द्रव्यैकत्वस्य भावस्वभावस्यैकान्तिकस्य प्रत्यक्षादिविरोधात् वर्णादिपर्यायकान्तस्वभावस्य 'चाबाधितप्रत्यभिज्ञाननिराकृतत्वात्' सिद्धं द्रव्यपर्याययोः कथंचिदैक्यम् । इस प्रकार से द्रव्य और पर्याय में ऐक्य के सिद्ध हो जाने पर यह विरोध वैयधिकरण्य आदि दोष रूप उपालंभ चतुस्रबुद्धि सहित बुद्धिमान् पुरुषों के ज्ञान को किचित्मात्र भी संतुष्ट नहीं कर सकते हैं, अन्यथा वर्णादि पर्याय वाले वर्णदिमान् द्रव्य के भी अभाव का प्रसंग आ जायेगा। भावार्थ-कवि - नूतन संदर्भ-रचना करने वाला कवि है। गमकी-शास्त्रबोधक कृतियों में भेद करने वाला है । वादी-वाक् प्रवृत्ति से अन्य प्रतिवादियों को जीतने वाला है और वाग्मी-जनों को अनुरंजित करने वाला वाग्मी कहलाता है। ये कवि, गमक, वादी और वाग्मी रूप अस्त्र अवयव, वे अवयव ही बुद्धि हैं जिनके वे चतुस्त्रधी सहित विद्वान् कहलाते हैं। ऐसे बुद्धिमान् लोग प्रत्येक द्रव्य पर्यायों को कथंचित् भेद रूप और कथंचित् अभेद रूप ही अनुभव करते हैं । __ कोई कहे कि द्रव्य ही एक है, वर्णादि रूप अनेक पर्याय नहीं हैं। क्योंकि वे विचार की कसौटी पर नहीं उतरती हैं। ___ अथवा कोई कहे कि-वर्णादि रूप पर्यायें ही अनेक हैं, द्रव्य नाम की कोई एक चीज नहीं है। क्योंकि उस एक द्रव्य का विचार करने पर सर्वथा सिद्धि नहीं हो पाती हैं । इस प्रकार से द्रव्यैकत्व रूप एकांत मानने वाले और पर्याय रूप अनेकत्व को मानने वाले ब्रह्माद्वैतवादी और सौगत दोनों ही परस्पर में एक-दूसरे को जीत नहीं सकते हैं। क्योंकि दूषण और समाधान दोनों जगह ही समान रूप हैं। कारण कि निरपेक्ष रूप द्रव्य और पर्याय दोनों भी भाव स्वभाव के प्रतिबंधी हैं। एकांत रूप से भाव स्वभाव रूप द्रव्यैकत्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है। एकांत स्वभाव रूप वर्णादि पर्यायों का भी अबाधित प्रत्यभिज्ञान से खण्डन कर दिया गया है। अर्थात जो मैंने पूर्व में देखा था, उसी का स्पर्श कर रहा हूँ। इस प्रकार का अबाधित प्रत्यभिज्ञान पूर्वोत्तरवर्ती एक ही पदार्थ को विषय करता है। अतएव द्रव्य और पर्याय में कथंचित् एकत्व. सिद्ध हो जाता है। 1 इति किं भवतीत्याह । ब्या० प्र० । 2 द्रव्यत्व । ब्या० प्र० । 3 पर्यायत्व । दि० प्र०। 4 त्वन्मतामृतबाह्यानामित्येतकारिकाव्याख्याने चित्रज्ञानवत्कथञ्चिदसंकीर्णविशेष कात्मन इति भाष्यविवरणावसरे वेदान्तनिराकरणावसरे चैकत्वस्य निराकृतत्वात सर्वात्मकं तदेकं स्यादिति कारिकाव्याख्याने द्रव्यमेव स्यान्न रूपादयो द्रव्यादिनानेकत्वस्य निराकतत्वादत्र संक्षेपेणोक्तम् । दि० प्र०। 5 स्या० एकान्तेन भावस्वभावः द्रव्य कत्वं प्रत्यक्षप्रमाणेन विरुद्धचत इति सांख्यं प्रति-तथैकान्तेन रूपादिपर्यायाभावः स्वभावाः प्रमाणोपन्न प्रत्यभिज्ञानेन निराकृता यतः । इति सौगतं प्रति =यत एवं ततो द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिदैक्यसिद्धम् =आह परः तर्हि भेदः कथं सिद्ध इत्युक्त आह । दि० प्र०। 6 भा। दि. प्र०।। ततश्च । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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