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________________ ( ३८ ) इसकी हिन्दी सर्वत्र ४ नं० सफेद है और अष्टशती की हिन्दी को पृथक् दिखलाने के लिये ४ नं० काले (ब्लैक) में अक्षर लिये हैं। इस ग्रंथ में जितने भी शीर्षक हैं, वे सब मेरे द्वारा बनाये गये हैं इसीलिये इन्हें कोष्ठक में (ब्रकेट) में दिया गया है। ग्रन्थ में आये हुए जितने भी उद्धृत श्लोक हैं, उनकी टाइप बदली है, पुन: उन श्लोकों को संकलित करके परिशिष्ट में दिया है। इस ग्रन्थ के अनुवाद में शब्दश: अर्थ करके यथा स्थान भावार्थ और विशेषार्थ देकर विषय को स्पष्ट करने प्रयास किया गया है तथा प्रायः प्रकरणों के पूर्ण होने पर उन-उन विषयों के सारांश दिये गये हैं । इसीलिये मैंने इस हिंदी टीका का "स्यावादचिंतामणि" यह नाम दिया है । ग्रन्थ की दुल्हता यह ग्रन्थ कितना दुरूह है, कितना क्लिष्ट है और इसका विषय भी कितना कठिन है ? इसके लिये इस ग्रन्थ के अन्त में लिखा हुआ है कि कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्री यमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्द्ध मानार्था ॥ अर्थात् यह अष्टसहस्री कष्टसहस्री है-हजारों कष्टों के द्वारा समझ में आने वाली है और हजारों मनोरथों को सफल करने वाली है । शुभाशीर्वाद पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी ने तीनों भागों के मूल संस्कृत, टिप्पण आदि के प्रूफ संशोधन में बहुत ही श्रम किया है, क्योंकि इतने महान् और दार्शनिक ग्रन्थ के संशोधन की क्षमता हर किसी में आना सहज नहीं था। क्षुल्लकजी की यह सरस्वती भक्ति ही रही है । टिप्पणियों का प्रूभ व्याकरण की शुद्धि की दुष्टि से प्रायः मुझे ही देखना पड़ा है। ब्र० रवींद्र कुमार ने भी इन ग्रन्थों के प्रकाशन में बहत ही रूचि ली है। इन दोनों के लिये मेरा यही मंगल आशीर्वाद है कि ये इसी तरह सतत जिनवाणी की उपासना करते रहें। प्रो० श्रेयांसकुमार ने हस्तलिखित प्रति से टिप्पणियां निकाली थीं । मुद्रक हरीशचन्द्र जैन, सुमन प्रिंटर्स मेरठ ने इस महान् ग्रन्थ को बड़ी लगन के साथ मुद्रित करके पुण्य लाभ लिया है। इस ग्रन्थ प्रकाशन के शुभ अवसर पर इन दोनों के लिये भी मेरा यही आशीर्वाद है कि आगे भी ये महानुभाव इसी तरह जिनवाणी की सेवा, भक्ति करते रहें। लघुता प्रदर्शन इस ग्रन्थ के अनुवाद में जहां कहीं भी कुछ कमी रह गई हो, कहीं अर्थ प्रस्फुटित नहीं हुआ हो या कहीं अर्थसंगत नहीं हुआ हो । तो विशेष विद्वान् मूल संस्कृत से उसके अर्थ को समक्षने का प्रयास करें। यह ग्रन्थ महान् है और मेरा ज्ञान अतीव अल्प है, कहां इस ग्रन्थ की गरिमा और कहां मेरी तुच्छ बूद्धि ! फिर भी मैंने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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