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अनुवाद की पूर्ति
इस ग्रन्थ का अनुवाद मैंने जयपुर के ईस्वी सन् १९६६ के चातुर्मास में प्रारम्भ किया था जबकि मैं आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के संघस्थ कई एक मुनियों को, आयिकाओं को तथा ब्रह्मचारी आदि को अष्टसहस्री ग्रंथ पढ़ा रही थी। इसके हिन्दी अनुवाद के समय संघस्थ मोतीचन्द जैन की विशेष प्रार्थना रही है और साथ ही विद्वान श्री भंवरलाल जी न्यायतीथं पं० इन्द्रलालजी शास्त्री आदि की भी विशेष प्रेरणा रही है। ईस्वी सन् १९७० के टोंक (राजस्थान) के चातुर्मास के बाद पौष शुक्ला १२ के दिन टोडारायसिंह (राजस्थान) में भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर में बैठकर मैंने इस महान ग्रन्थ का अनुवाद पूर्ण किया था। उस समय श्रावकों ने भक्ति से प्रेरित हो मुलग्रंथ और अनुवादित कापियों को चौकी पर विराजमान कर श्रुतस्कंध विधान की पूजा सम्पन्न की।
अनंतर पौष शुक्ला १५ के दिन आचार्य श्री धर्मसागर जी के जयंती समारोह के उपलक्ष्य में रथयात्रा के साथ पालकी में इस ग्रन्थ को व कापियों को विराजमान कर उनकी शोभा यात्रा सम्पन्न हुई थी। इसके बाद ईस्वी सन् १९७४ में इस अष्टसहस्री ग्रंथ के प्रथम भाग का प्रकाशन होकर दिल्ली में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज और आचार्य प्रवर श्री धर्म सागर जी महाराज, इन दोनों के विशाल संघों के सानिध्य में तथा मुनिश्री विद्यानन्द जी महाराज व मेरे संघ सानिध्य में इसका विमोचन समारोह सम्पन्न हुआ था।
शेष भागों का प्रकाशन
ईस्वी सन् १९८७ में अष्टसहस्री के द्वितीय आदि भागों के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। द्वितीय भाग के छपते ही प्रथम भाग जो कि पहले छप चुका था, उसकी कुछ ही प्रतियां शेष रही थीं। अतः प्रथम भाग का द्वितीय संस्करण भी छपाया गया और साथ ही शेष बचे तृतीय भाग को भी प्रेस में दे दिया गया। इस महान् ग्रन्थराज का अनुवाद कार्य सन् १९७० में पूर्ण हुआ था और आज सन् १९६० में यह पूर्ण ग्रन्थ तीन भागों में छप चुका है बीस वर्ष के बाद इसके तीन भागों के छपने का योग आया। इस बीच सन्मार्ग दिवाकर तीर्थोद्धारक शिरोमणि आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज ने तथा अन्य अनेक साधुओं ने व पं० कैलाशचन्द सिद्धान्त शास्त्री, डा० दरबारीलाल कोठया, डा. लाल बहादुर जी शास्त्री, डा. पन्नालाल जी साहित्याचार्य आदि अनेक विद्वानों ने बहुत बार कहा था कि "माताजी ! इस अष्टसहस्री ग्रन्थ को जल्दी ही पूरा प्रकाशित कराइये।"
आज प्रसन्नता की बात है कि अष्टसहस्री का प्रथम भाग "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" का प्रथम पुष्प था और यह तृतीय भाग इस ग्रंथमाला का सौवां (१००वां) पुष्प जो कि कली के रूप में रखा था, वह विकसित हो रहा है।
ग्रन्थ की विशेषता
___ इस ग्रंथ में चार आचार्यों की रचनाएं हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् रूप में टाईप बदलकर दिखाया गया है। श्री समंतभद्र स्वामी की कारिकाओं को २४ नं ० काला (ब्लैक) टाइप में लिया गया है। अष्टशती को १६ नं० काला (ब्लक) में लिया है और अष्टसहस्री को १६ नं० सफेद (व्हाइट) में लिया है तथा 'टिप्पण" और "शीर्षक" को १२ नं० सफेद में दिया गया है।
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