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हे भगवन् ! जिन्हें हमने निर्दोष रूप से निश्चित किया है वे निर्दोष आप्त आप ही हैं क्योंकि आपके वचन, युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। आप ही मोक्षमार्ग के प्रणेता कर्मभूभृत् के भेत्ता एवं विश्व तत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हैं, इस कारण से आप ही भगवान् अहंत, सर्वज्ञ सिद्ध हैं, स्याद्वाद के नायक हैं, यह बात सिद्ध हो गई।
इस प्रकार से हित की इच्छा करने वालों के लिये मैंने यह भाप्त की मीमांसा कही है जो कि सम्यक् मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष को समझने के लिये है ।
यहां पर अष्टसहस्री ग्रन्थराज के कुछ सरल और मधुर प्रकरणों को साररूप में समझाने का प्रयास किया गया है । जो विशेष जिज्ञासु हैं, उन्हें हिन्दी अनुवाद सहित इस अष्टसहस्री ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहिये। स्याद्वाद के रहस्य को समझने के लिये यह एक अनूठा ग्रन्थ है।
इस दशम् परिच्छेद में ६६ से ११४ तक २० कारिकाएं हैं।
हिन्दी अनुवाद
मूल अष्टसहस्री जो कि "निर्णयसागर" प्रेस बम्बई से सन् १९१५ में छपी थी, उसी ग्रन्थ के आधार से मैंने सन् १९६६ में हिन्दी अनुवाद करना प्रारम्भ किया था। इस मुद्रित प्रति में संस्कृत टिप्पण बहुत से हैं । अनुवाद के समय मैंने इन टिप्पणियों का अच्छा उपयोग किया है ।
अनुवाद पूर्ण होने के बाद सन् १९७२ में मुझे ब्यावर के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन से अष्टसहस्री ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध हुई। इस प्रति से भी मैंने कुछ पाठांतर व टिप्पण निकाये। पुनः दिल्ली आकर सन् १९७३ में मुझे 'नया मन्दिर' दिल्ली के ग्रन्थ भण्डार से अप्ठसहस्री ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति और उपलब्ध हुई । इसमें से भी कुछ विशेष टिप्पण लेकर अष्टसहस्री के प्रथम भाग में जोड़ दिये थे। पुनः प्रोफेसर श्रेयांसकुमार से मैंने इस हस्तलिखित प्रति से प्रायः सारी टिप्पणियां निकलवायीं थीं।
द्वितीय भाग में लगभग १०० पेजों तक तो मुद्रित और हस्तलिखित दोनों प्रतियों की टिप्पणियां छपाई गई। आगे टिप्पणियों की विशेष ही बहुलता देखकर यह निर्णय लिया गया कि मुद्रित प्रति की टिप्पणियों को छोड़ दिया जाये और हस्तलिखित ब्यावर, दिल्ली से प्राप्त दो प्रतियों की टिप्पणियां ही दी जावें, इनमें से भी दिल्ली प्रति से प्राप्त टिप्पणियां कुछ बहुत ही बड़ी-बड़ी थीं, उन्हें भी छोड़ दिया गया है। इस तृतीय भाग में तो मात्र ब्यावर और दिल्ली से उपलब्ध प्रतियों के ही पाठांतर व खास.खास टिप्पण दिये गये हैं।
दिल्ली प्रति में टिप्पण के अन्त में दो श्लोक आये हैं, उनके बाद जो समाप्ति सूचक वाक्य हैं, उससे ऐसा निश्चित होता है कि "श्री समंतभद्र" नाम से कोई अन्य मुनि और हुए हैं जिन्होंने अपने को "लघु समंतभद्र" कहा है । उन्हीं के द्वारा ये टिप्पणियाँ बनाई गई हैं । यथाविद्यानंदकृते प्रवादमखिलं निर्मूलयन्त्या भृशं, विद्यानंदकृतेः पदस्य विवृत्ति गूढस्य संक्षेपतः। विद्यानंदकृते व्यरीरचमलं विद्वज्जनालंकृते, शक्त्याहं हि समंतभद्रमुनयो देवागमालंकृते ॥१॥
शिष्टीकृतदुर्दृष्टिसहस्री, दृष्टिकृतपरदृष्टिसहस्री। स्पष्टीकुरुतादिष्टसहस्रीमरमाविष्टपमष्टसहस्री ॥२॥
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