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तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहने से अज्ञान, निराकार दर्शन और संशय आदि ज्ञान, इन सबका निराकरण हो जाता है । इस प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष ऐसे दो भेद होने से परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम, ये ज्ञान भी प्रमाण रूप हैं ।
केवलज्ञान का फल तो उपेक्षा है। शेष ज्ञानों का फल ग्रहण करना, त्याग करना तथा उपेक्षा करना इन तीनों रूप है अथवा अपने-अपने विषय में अज्ञान का अभाव होना हो ज्ञान का फल है।
हे भगवन् ! आपके यहाँ 'स्यात्' यह पद निपात से सिद्ध है। वाक्यों में अनेकांत को उद्योतित करने वाला है एवं अपने अर्थ से सहित होने से अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण है । यह अनेकांत सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि रूप सर्वथा एकांत का निराकरण करने वाला है । जैसे 'स्याज्जीव:' ऐसा कहने से उसका प्रतिपक्षी अजीब भी जान लिया जाता है। सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है। 'कथंचित' आदि शब्द इसी के पयार्यवाची हैं, यह सप्तभंगों की अपेक्षा करके स्वभाव और परभाव के द्वारा वस्तु के सत्-असत् आदि धर्मों की व्यवस्था करता है।
विरोध रहित स्याद्वादरूप आगम प्रमाण के द्वारा विषय किये गये पदार्थ विशेष का जो व्यंजक है, वह नय कहलाता है अर्थात् जिसके द्वारा जानने योग्य अर्थ का ज्ञान होता है, वह नय है ।
अनेक रूप अर्थ को विषय करने वाला अनेकांत रूप ज्ञान प्रमाण है। अन्य धर्मों की अपेक्षा करते हुए वस्तु के एक अंश का ज्ञान नय है और अन्य धर्मों का निराकरण करके वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाला दुर्नय है, क्योंकि यह विपक्ष का विरोध होने से केवल स्वपक्ष मात्र का हठाग्रही है। यदि कोई कहे कि मिथ्या
त का समुदाय मिथ्यारूप ही है, तो हमने ऐसा नहीं माना है. हमारे यहाँ निरपेक्ष नय मिथ्या हैं और उनका समूह भी मिथ्या ही है । यदि वे ही नय सापेक्ष हैं तो सम्यक हैं, वास्तविक हैं।
नय के मूल में दो भेद हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । इन दो के ही सात भेद हो जाते हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । जो द्रव्य को ही विषय करे, जिसकी दृष्टि में पर्यायें गौण हो, वह द्रव्याथिक नय है तथा जो पर्याय मात्र को विषय करे, वह पर्यायाथिक नय है। जैसे द्रव्याथिक नय से जीव, नित्य है जन्ममरण से रहित हैं तथा पर्यायाथिक नय से जीव अनित्य है । उसकी पर्यायों का उत्पाद विनाश होने से वह जीव से भिन्न नहीं है।
स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखने वाला है, हेय और उपादेय के भेद को करने वाला है तथा सभी तत्त्वों को केबलज्ञान के समान प्रकाशित करता है। "स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमो भवेत् ॥१०॥
अर्थ- स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले है । अन्तर केवल इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करता है और स्याद्वाद असाक्षात-परोक्षरूप से प्रकाशित करता है-स्याद्वाद आगम परोक्षरूप से सभी पदार्थों का ज्ञान करा देता है। यहाँ पर 'सर्व' इस पद से उनकी सम्पूर्ण गुण पर्यायों को नहीं लेना चाहिये। क्योंकि 'मतिश्रुतयोनिबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का विषय सभी द्रव्य और उनकी कुछ-कुछ पर्यायें हैं, ऐसा सूत्रकार का वचन है, अतः प्रमाण का विषय धर्मातरों को ग्रहण करना है, मयों का विषय धर्मातरों का त्याग करना है, क्योंकि प्रमाण से सत्-असत् स्वभाव का ज्ञान होता है, नय से तत-एक अंश का ज्ञान होता है तथा दुर्नय से अन्य का निराकरण करके निरपेक्ष एक अंश का ज्ञान होता है। इसलिये
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