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________________ अभेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३०५ [ कार्यस्य भ्रान्ती परमाणुरूपं कारणमपि भ्रान्तमेव ] प्रत्यक्षतः परमाणूनां प्रसिद्धर्नाणुभ्रान्तिरिति चेन्न, तेषामप्रत्यक्षत्वात् । तथा हि । चक्षुरादिबुद्धौ 'स्थूलकाकारः प्रतिभासमानः परमाणुभेदैकान्तवादं प्रतिहन्ति तद्विपरीतानुपलब्धिर्वा' । तत्रैतत्स्याद्धान्तैकत्वादिप्रतिपत्तिरिति तन्न, परमाणूनां चक्षुरादिबुद्धौ स्वभावमनर्पयतां कार्यलिङ्गाभावात्तत्स्वभावाभ्युपगमानुपपत्तेः, प्रविरलवकुलतिलकादीनां जातुचित्प्रत्यक्षतोऽप्रतिपत्तावनेकाकारप्रतिभासस्य च भ्रान्तत्वे तत्स्वभावाभ्युपगमानुपपत्तिवत् । कार्यलिङ्ग हि कारणं परमाणुरूपम् । तत्कथं कार्यस्य भ्रान्तौ भ्रान्तं न भवेत् ? पर क्योंकि कार्य के हेतु से ही कारण का ज्ञान होता है। एवं इन दोनों के अभाव से इनमें स्थितरहने वाले गुण, जाति और क्रिया आदि कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे ॥६॥ [ कार्य को भ्रांत कहने पर परमाणु रूप कारण भी भ्रांत ही हैं । ] बौद्ध-प्रत्यक्ष से परमाणुओं की प्रसिद्धि है अतः अणु भ्रांति रूप नहीं होंगे। जैन-नहीं ! क्योंकि परमाणु तो साक्षात् ही प्रत्यक्ष नहीं हैं, अप्रत्यक्ष ही हैं। तथाहि । चक्षु आदि के ज्ञान में स्थूल एकाकार से प्रतिभासित होता हुआ स्कंध, परमाणुओं को भिन्न-भिन्न मानने रूप एकांतवाद को नष्ट कर देता है। अथवा तदविपरीत-स्थूल एकाकार से विपरित परमाणुओं की उपलब्धि ही नहीं है और वहां अनुपलब्धि ही परमाणु के भिन्न-भिन्न एकांतवाद को खतम कर देती है। ___ सौगत पक्ष का आश्रय लेकर वैशेषिक कहता है कि नित्यकांत का निराकरण करने पर एवं स्याद्वाद को स्वीकार करने पर यह फल होगा कि परमाणुओं में एकत्वादि का ज्ञान है व स्याद्वादियों को भ्रांत हो जायेगा। शंका-उसका फल यह होगा कि एकत्वादि का ज्ञान जो स्याद्वादियों को हो रहा है वह भ्रांत रूप ही होगा। जैन-ऐसा नहीं है। क्योंकि चक्षु आदि ज्ञान में अपने स्वभाव का समपर्ण न करते हये परमाणु लिङ्ग रूप नहीं है। कारण उस परमाणु रूप स्वभाव को स्वीकार करना बनता ही नहीं है । अर्थात् सौगत और वैशेषिक दोनों को समान रूप से यही दूषण आता है। ___ यदि प्रविरल-भिन्न-भिन्न वकुल तिलक आदि कदाचित् भी प्रत्यक्ष से नहीं दिखते हैं। तब उनका अनेकाकार प्रतिभास भी भ्रांत ही है पुनः उनके स्वभाव की स्वीकृति सर्वथा वृक्ष को नहीं देखने वालों को नहीं बनती है। अर्थात् कार्य लिङ्ग का अभाव होने से उसके स्वभाव को स्वीकार करना नहीं बनता है। 1 बुद्धौ स्थूलाकारः । इति पा० । दि० प्र०। 2 परमाण्वाकारस्य । दि० प्र०। 3 साध्यस्थूलत्व । दि० प्र०।। 4 कार्यालिङ्गाभावात्तत्वस्वभावाभ्युपगमानुपपत्तेरित्येतद्भावयन्नाह । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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