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________________ अष्टसहस्री ३०४ ] [ च० प० कारिका ६८ रोधे स्वसंवेदनमात्र' मपि सिध्येत्, सर्वदा संवित्परमाणुमात्रस्यासंवेदनात् । न च कार्यस्य 'भ्रान्तौ परमाणुसिद्धिस्तत्त्वतः स्यादित्युच्चयते । कार्य भ्रान्तेरणु' भ्रान्तिः कार्यलिङ्ग हि कारणम् । उभयाभावतस्तत्स्थं' 1"गुणजाती"तरच्च न॥६॥ कर्षणादि नहीं मानना चाहिये। क्योंकि किसी भी विशेषांतर से उनका भिन्न भिन्नपना निराकृत नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार से पृथ्वी आदि भूत चतुष्टय की स्थिति विभ्रममात्र ही हो जायेगी। क्योंकि सर्वदा परमाणुपना मिले हुये और भिन्न-भिन्न परमाणु इन दोनों जगह समान ही हैं। बौद्ध-ऐसा मानना तो हमें इष्ट हो है । अतः कोई दोष नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कहना। क्योंकि संहत स्कंध रूप और भिन्न-भिन्न परमाणुओं में समानता कहना प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है। प्रत्यक्ष तो बाह्य के वर्ण संस्थानाद्यात्मक, स्थायास, स्थूलतर और आकारमान् और अंतरंग के हर्षादि अनेक पर्यायात्मक स्वरूप को साक्षात् करता हुआ यदि भ्रांत रूप होगा तब तो यह बतलाओ कि अभ्रांत रूप अन्य और क्या है। जो कि प्रत्यक्ष के लक्षण को प्राप्त हो सकेगा ? और प्रत्यक्ष का अभाव मान लेने पर अनुमान भी विरुद्ध कैसे नहीं होगा ? प्रत्यक्षादि के विरुद्ध हो जाने पर स्वसंवेदन मात्र भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि हमेशा संवित्परमाणु का संवेदन नहीं होता है। उत्थानिका-स्कंध रूप कार्य को भ्रांत मान लेने पर परमाणु की सिद्धि भी वास्तव में नहीं हो सकेगी। इसी को कहते हैं यदि कार्य स्कंध भ्रांत हैं तब कारण परमाणू भ्रांत । चूंकि कार्य हेतु से होता कारण परमाणू का ज्ञान ।। यदि दोनों ये भ्रांत हुये तब दोनों का हो गया अभाव । उनमें रहने वाले गुण जात्यादिक का फिर नाहिं सद्भाव ॥६८।। कारिकार्थ-कार्यभूत चतुष्क को भ्रांत मानने से परमाणुओं को भी भ्रांत मानना पड़ेगा। 1 अत्राह सौगतमतमवलम्ब्य वैशेषिक: अहो प्रत्यक्षादिविरोधे सत्यपि स्वसंवेदनमात्रं प्रमाणं सिद्ध्येत् स्या. वदति एवं न । सदा संवित्परमाण मात्र स्वसंवेदनमात्रप्रमाणेन न ज्ञायते यतः । दि० प्र०। 2 अज्ञातत्वात् । दि० प्र० । 3 अवतारिका । दि० प्र०। 4 सत्याम् । दि० प्र०। 5 एतज्जैनेनोच्यते । दि० प्र० । 6 स्कन्धरूप। हेतु: । दि० प्र०। 7 कुतः । यस्मात् । दि० प्र०। 8 यतः इति सति किं भवतीत्युक्त आह । दि० प्र०। 9 कार्यकारणस्थम् । दि० प्र०। 10 रूपादि । दि० प्र०। 11 सामान्यं सत्तादिस्वभावम् । दि० प्र०। 12 क्रियाविशेषसमवायाख्यं परमाणुर्वृत्तिर्वा स्याद्व्यवृतिर्वा न च तदुभयासंभवे सति गुणजातीतरच्चाभ्युपगतं युक्तमन्यथा गगनकुसुमस्याभावे तस्मिन् वृत्तिसौरभाभ्युपगमप्रसंगात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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