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________________ ३०६ ] [ च० प० कारिका ६० माणूनां कार्यस्य चानभ्युपगमे तद्वयाभावात्तद्वृत्तयो' जातिगुणक्रियादयो न स्युर्व्योमकुसुमसौरभवत् । तद्धि गुणजाति' रूपादिसत्तादिस्वभावमितरच्च क्रियाविशेषसमवायाख्यं परमाणुवृत्ति' वा स्यात् कार्यद्रव्यवृत्ति वा न च तदुभयासंभवेभ्यपगन्तुं युक्तं, गगनकुसुमस्याभावेपि तद्वृत्तिसौरभाभ्युपगमप्रसङ्गात् । ततस्तदभ्युपगच्छता कार्यद्रव्यमभ्रान्तमभ्युपगन्तव्यम् । तच्च परमाणूनां परमाणुरूपतापरित्यागेनावयविरूपतोपादाने सति संभाव्यते नान्यथा । ' तन्न तेषा - मनन्यतैकान्तः, कार्योत्पत्तौ कथंचिदन्यत्वोपपत्तेः । ' ततः सौगतवन्न वैशेषिकाणां स्वमतसिद्धिः । अष्टसहस्री क्योंकि कार्य लिङ्ग से परमाणु रूप कारण जाना जाता है। कार्य को भ्रांत मानने पर वे कारण अणु भी भ्रांत क्यों नहीं हो जायेंगे ? पुन: परमाणु और कार्य- स्कंध उन दोनों को स्वीकार न करने पर "इन दोनों का अभाव हो जाने से उनको वृत्तियां, जाति, गुण, क्रियादिक भी नही हो सकते हैं । आकाश पुष्प की सुगंधि के समान ।" गुण, जाति, रूपादि, सत्तादि-स्वभाव और इतर क्रिया, विशेष और समवाय नामक पदार्थ परमाणु में रहेंगे या कार्य द्रव्य में रहेंगे और कार्य-कारण इन दोनों को भ्रांत मान लेने पर ये दोनों असंभव ही हो जावेंगे पुनः इन गुण, जाति और क्रिया आदि का परमाणु में या स्कंध में रहना स्वीकार करना युक्त नहीं है । अन्यथा आकाश कुसुम के अभाव में भी उसमें रहने वाली सुगंधि को स्वीकार करने का प्रसंग आ जायेगा । इसलिये उन गुण, जाति आदि को स्वीकार करते हुये कार्य द्रव्य को अभ्रांत रूप स्वीकार करना चाहिये और वह कार्य परमाणुओं की परमाणुरूपता का त्याग करके अवयवी स्कंध रूप को ग्रहण करने पर ही सम्भव है अन्यथा असंभव है । इसलिये उन परमाणुओं में अभिन्नता रूप एकांत संभव नहीं है । क्योंकि कार्य को उत्पत्ति के होने पर कथंचित् - स्कंध की अपेक्षा से भिन्नता ही बनती है । अर्थात् परमाणु एक स्वभाव ही रहते, अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य रूप परिणत नहीं होते हैं, यह बात गलत है । इसलिये सौगत मत के समान वैशेषिकों के मत की सिद्धि भी नहीं हो सकती है । 1 परमाणु कार्यमाश्रिताः । दि० प्र० । 2 कर्तृ । ब्या० प्र० । 3 अत्राह स्याद्वादी हे वै तदुभयासंभवे कार्यकारणयोरसत्त्वे परमाणुवृत्तिः कार्यवृत्तिर्वा तवाङ्गीकतु युक्ता । न च स्यात् युक्ता स्याच्चेत्तदा खपुष्षांभावोपि पुष्पाश्रितसौरभाङ्गीकारः युक्तो भवतु इत्यारोपणम् = यत एवं ततस्तत्परमाणुलक्षणं कारणं मन्यमानेन त्वया कार्यद्रव्यम भ्रान्तमभ्युपगन्तव्यम् =तच्चकार्यं परमाणूनां परमाणुत्वत्यागेनावयविरूपत्वाङ्गीकारे सति निश्चीयते । दि० प्र० । 4 तस्मात् । दि० प्र. 5 एकत्व । दि० प्र० । 6 यत एवम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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