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________________ भेद एकांतवार का खण्डन ] तृतीय भार्ग । २६१ रिष्ट: । सामान्यस्य हि स्वविशेषादपोद्धृतस्य विशेषान्तरात्मकत्वे विशेषस्य च 'स्वसामान्यानिर्धारितस्य सामान्यान्तरात्मकत्वेनवस्था स्यान्नान्यथा। भिन्नस्य च सामान्यस्य' विशेषाद्विशेषस्य च सामान्यादित र निरपेक्षत्वे प्रतिज्ञाहानिः प्रसज्यते, न पुनरितरथा । इति स्याद्वादिनां सर्वं सुस्थम् । वैशेषिकाणां तु तदुभयप्रकारानभ्युपगमादुक्तदोषानुषङ्ग एव । तेषां हि, सामान्य और विशेष के एक-एक में सामान्य विशेषात्मकत्व के स्वीकार करने पर अनवस्था दोष आता है। ऐसा भी आप नहीं कह सकते । अन्यथा "सभी सामान्य विशेषात्मक हैं" यह प्रतिज्ञा पक्ष नष्ट हो जायेगा। अर्थात् सामान्य में सामान्य-विशेषात्मकत्व और विशेष में भी सामान्यविशेषात्मकत्व मौजूद है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से ये दोनों हो सामान्य और विशेष अन्योन्यात्मक रूप सिद्ध हैं अर्थात् सामान्य हो विशेष है और विशेष ही सामान्य है। पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से परस्पर में ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। __ क्योंकि ये दोनों ही सामान्य और विशेष परस्पर में सापेक्षपने से ही इष्ट हैं । यदि अपने विशेष घट रूप से पृथक् घटत्व सामान्य को विशेषान्तरात्मक-भिन्न विशेष रूप स्वीकार करेंगे, तथा अपने सामान्य से पृथक् किये गये विशेष को भिन्न सामान्य रूप स्वीकार करेंगे तब तो अनवस्था दोष अनिवार्य है। किन्तु अन्यथा इन दोनों को परस्पर में अन्योन्यात्मक स्वीकार करने पर अनवस्था नहीं आ सकती है। एवं सामान्य को विशेष से भिन्न तथा विशेष को सामान्य से भिन्न रूप परस्पर में निरपेक्ष मानने पर प्रतिज्ञा हानि का प्रसंग आ सकता है। किन्तु अन्यथा रूप अर्थात् परस्पर सापेक्ष स्वीकार करने पर प्रतिज्ञा हानि दोष नहीं आता है। इस प्रकार से स्याद्वादियों के यहाँ कथंचित् अभिन्न रूप सामान्य-विशेषादि सभी बातें सुस्थित हैं। किन्तु वैशेषिकों के यहाँ तो सामान्य विशेष में परस्पक्ष सापेक्षत्व को स्वीकार न करने से उपर्युक्त दोषों का प्रसंग आता ही है। 1 वस्तुसामान्यात् । इति पा० । दि० प्र०। 2 सामान्यात्सामान्यस्य । इति पा० । दि० प्र०। 3 सामान्याद्भिन्न सामान्य स्वसामान्यं नापेक्षते चेत्तदा सर्वसामान्यविशेषात्मकमित्याचार्याणां प्रतिज्ञाहानिर्घटेत् । तथा विशेषाद्भिन्नो विशेषः । स्वविशेष नापेक्षते चेत्तदापि प्रतिज्ञा हीयते न पुनरितरथा कोर्थः सामान्यविशेषाभ्यां सांधात्पृथक्कृतयोः सामान्य विशेषयोः स्वसामान्यविशेषसापेक्षत्वे प्रतिज्ञान हीयत इति स्याद्वादिनां मतं सर्व सूस्थं जातं वैशेषिकाणां तु नः सामान्यविशेषात्मकानङ्गीकारात् पूर्वोक्तदोषानुषङ्गः स्यात् । दि० प्र०। 4 विशेषसामान्य ब्या० प्र०। 5 एकस्याने कवत्तिनेत्यादिदेशकालविशेषे चेत्यादि । ब्या० प्र०। 6 तथाहि । इति पा० । दि०.प्र.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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