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________________ २८२ ] अष्टसहस्री [ च० ५० कारिका ६४ युक्तिमान, कालादेरपि संबन्धत्वप्रसङ्गात् । संबद्ध एव हि स्वसंबन्धिभिः संयोगः संबन्धो दृष्टस्तस्य तैः कथंचित्तादात्म्यसंबन्धात् । समवायोपि विशेषण' विशेष्यभावसंबन्धात्समवायिभिः संबद्ध इति चेन्न, तस्यापि विशेषणविशेष्यभावान्तरेण स्वसंबन्धिभिः संबन्धेनवस्थाप्रसङ्गात्, अन्यथा संबन्धत्वविरोधात् । तस्य संबन्धिभिः कथंचित्तादात्म्ये कार्यकारणादीनामपि तदेवास्तु। कि समवायेन पदार्थान्तर भूतेन सत्तासामान्येनेव कल्पितेन ? फलाभावात् । समवायी में दूसरे से माननी पड़ेगी। अतः अनवस्था सुनिश्चित है। दूसरा पक्ष लेवे तो जब समवाय स्वतः समवायियों में जुड़ता है तब द्रव्यादिक-समवायियों को परस्पर में इस समवाय से भी जोड़ने की क्या आवश्यकता है। जिस प्रकार समवाय अपने द्रव्यादिक संबंधियों में अन्य समवाय के बिना जुड़ता है उसी प्रकार द्रव्यादि संबंधी परस्पर में स्वयं जुड़े हुये हैं अतः समवाय की कल्पना कुछ भी कार्यकारी न होने से अनावश्यक ही है। वैशेषिक-समवाय अपने समवायियों में संबंधित होने के लिये अन्य संबंध (समवाय) की अपेक्षा नहीं रखता है। क्योंकि वह अनाश्रित है। अर्थात् समवाय को अनाश्रित मानने पर भी "षण्णामाश्रितत्वं अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" नित्य द्रव्यों को छोड़कर छह द्रव्य हमारे यहाँ आश्रित हैं इस तरह से हमारे ग्रन्थ में विरोध नहीं है। वहां भी उसे उपचार से ही आश्रित कहा गया है। जैन-यदि आप ऐसा मानते हैं तब तो समवायियों से असंबंधित वह समवाय द्रव्यादिकों के साथ कैसे रहेगा, कि जिससे कार्य कारणादिकों में पृथक सिद्धि न हो सके ? अर्थात् पृथक सिद्धि ही हो जायेगी। अतएव अयुक्त-असंबंधित संबंध समवायियों के साथ युक्त-घटित नहीं होता है। क्योंकि समवायियों के साथ अप्रतिबद्ध-अनाश्रित रहकर ही समवाय रूप संबंध युक्तिमान् नहीं है। अन्यथा कालादि में भी संबंधपने का प्रसंग आ जायेगा। क्योंकि अनाश्रितपना दोनों जगह समान है। __ अपने संबंधियों से संबंधित होकर ही संयोग रूप संबंध देखा जाता है। क्योंकि वह संयोग स्वसंबंधियों से कथंचित् तादात्म्य संबंध वाला है अर्थात् परिणामात्मक है ।। 1 पुनः स्या० हि यस्मात्संयोगनामसम्बन्धः स्वसम्बन्धिभिः सह संबद्ध एव दृष्टोस्माभिः कस्मात् । तस्य संयोगसंबन्धस्य तैः स्वसंबन्धिभिः सह कथञ्चित्तादात्म्यसंबन्धोस्ति यतः । दि.प्र.। 2 वै० माह हे स्याद्वादिन् यथा संयोगः सम्बद्धस्तथा समवायोपि विशेष्यविशेषणभावात स्वसम्बन्धिभिः सह संबद्ध एव दृष्ट इति चेत् स्यादेवं न । सस्य विशेषणविशेष्यभावस्य अन्यविशेषणं विशेषणविशेष्यभावेन कृत्वा स्वसंबन्धिभिः सम्बन्धे सति यथा समवायस्य तथानवस्था प्रसजति यथा। अन्यथा संबन्धाभावे सति संबद्धत्वं विरुद्धचते । दि० प्र०। 3 समवायः कयोः समवायिनोरिति विशेषणविशेष्यभावः । ब्या० प्र०। 4 तस्य विशेषणविशेष्यभावस्य संबन्धिभिस्सह कथञ्चित्तादात्म्ये सति कार्यकारणादीनामपि कथञ्चित्तादात्म्यं भवत् । दि.प्र.। 5 स्या० वदति यथा कल्पनया रचितेन सत्तासामान्येन तथा भिन्नेन समवायेन किं ? किमपि प्रयोजनं नास्ति । कुतः फलरहितत्वात् । दि० प्र०। 6 वस्तुनः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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